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________________ प्रभुः - प्रभु | तुल्य मनोवृत्तिः - समानभाव धारण करनेवाले ३१७ । तुल्य - समान । मनोवृत्ति भाव । अस्तु हों । पार्श्वनाथ:-श्रीपार्श्वनाथ | वः - तुम्हें । अर्थ- सङ्कलना अपने लिए उचित ऐसा कृत्य करनेवाले, कमठासुर और धरणेन्द्रपर समानभाव धारण करनेवाले श्रीपार्श्वनाथ प्रभु तुम्हें आत्म- लक्ष्मी के लिये हों ।। २५ ।। मूल श्रीमते वीरनाथाय, सनाथायाद्भुतश्रिया । महानन्द - सरो - राजमरालायार्हते नमः || २६ || शब्दार्थ श्रीमते - अनन्त ज्ञानादि - लक्ष्मीसे युक्त के लिये । वीरनाथाय - श्रीवीरस्वामी के लिये, श्रीमहावीर स्वामी के लिये । सनाथाय - अद्भुत - श्रिया श्रिये - लक्ष्मीके लिये, आत्म लक्ष्मी के लिये | अलौकिक लक्ष्मो से युक्त के लिये । सनाथ-युक्त । अद्भुत - अलौकिक । श्री - लक्ष्मी । यहाँ Jain Education International अलौकिक लक्ष्मीसे चौंतोस अतिशय समझने चाहिये । महानन्द- सरो- राजमरालाय - परमानन्दरूपी राजहंस - स्वरूप | सरोवर में सरस्-सरोवर । राजहंस | अर्हते - पूज्य । नमः - नमस्कार हो । For Private & Personal Use Only राजमराल www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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