________________
शब्दार्थजावंति-जितने।
अ-भी। चेइयाइं-चैत्य, जिनबिम्ब ।
सव्वाइं ताई-उन सबको । उड्ढे-ऊर्ध्वलोकमें।
वंदे-मैं वन्दन करता हूँ। अ-और।
इह-यहाँ । अहे-अधोलोकमें। अ-तथा ।
संतो-रहते हुए। तिरिअलोए-तिर्यग्लोकमें, मनु
तत्थ-वहाँ । ष्यलोकमें।
। संताइं-रहे हुओंको। अर्थ-सङ्कलना
ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मनुष्यलोकमें जितने भी चैत्यजिनबिम्ब हों, उन सबको यहाँ रहते हुए और वहाँ रहते हुओंको मैं वन्दन करता हूँ। सूत्र-परिचय___ यह सूत्र तीनों लोकोंमें स्थित जिनचैत्योंको वन्दन करनेके लिये उपयोगी है और आशयकी शुद्धि करनेवाला होनेसे इसने प्रणिधानत्रिकमें स्थान प्राप्त किया है।
१५ सव्वसाहु-वंदरण-सुत्तं
['जावंत केवि साहू-सूत्र ]
[ गाहा] जावंत केवि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ । सव्वेसि तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं ॥१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org