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________________ अर्थ- सङ्कलना भव्य उपासकों को सिद्धि, शान्ति और परम- प्रमोद देनेवाली तथा सत्त्वशाली उपासकों को निर्भयता और क्षेम देनेवाली हे देवि ! आपको नमस्कार हो ॥ ९ ॥ मूल " भक्तानां जन्तूनां शुभावहे ! नित्यमुद्यते ! देवि ! | सम्यग्दृष्टीनां धृति - रति-मति - बुद्धि-प्रदानाय ॥१०॥ जिनशासन - निरतानां, शान्ति-नतानां च जगति जनतानाम् । श्री-सम्पत्-कीर्ति-यशो-वर्धनि ! जय देवि ! विजयस्व ॥ ११ ॥ शब्दार्थ— भक्तानां जन्तूनां कनिष्ठ उपा कोंका | शुभावहे ! - शुभ करनेवाली । नित्यम् - सदा । उद्यते ! - उद्यमवती !, तत्पर रहनेवाली ! देवि ! - हे देवि ! १९६ सम्यग्दृष्टीनां - सम्यग्दृष्टिवाले जीवोंको । धृति-रति-मति - बुद्धि-प्रदानाथ - धृति, रति, मति और बुद्धि देने में सदा तत्पर । धृति - स्थिरता । रति - हर्ष । मति- विचार - शक्ति । Jain Education International बुद्धि-अच्छे बुरेका निर्णय करने वाली शक्ति | जिनशासन- निरतानां शान्ति - नतानां च जैनधर्म में अनुरक्त तथा शान्तिनाथ भगवान्‌को नमन करनेवाली । जगति - जगत् में | जनतानां - जनता के लिये । श्री सम्पत् कीर्ति - यशो व धनि ! - लक्ष्मी, सम्पत्ति, कीर्ति और यशमें वृद्धि करनेवाली । जय-आपकी जय हो । देवि ! - हे देवि ! विजयस्व - आपकी विजय हो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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