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________________ ५१७ (घुटने ) इस तरह पाँचों अङ्ग एकत्रित करके, भूमिका स्पर्श करते हुए ‘मत्थएण वंदामि' ये पद बोले जाते हैं। वन्दनकी क्रियामें यह पञ्चाङ्ग-प्रणिपात मध्यम प्रकारका वन्दन कहा जाता है। गुरुको इस प्रकार वन्दन करने के बाद पुनः खड़े होकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिक्कमामि ?' इन शब्दोंसे ईपिथिकी प्रतिक्रमणका आदेश माँगा जाता है। यह 'लघुप्रतिक्रमण' है अथवा प्रतिक्रमणकी बृहद् भावनाका प्रतीकरूप है, इससे उसकी सकारण योजना की गयी है । जो साधक समभावकी साधना करनेको तत्पर हुआ हो, उसको पाप-प्रवृत्तिके प्रति अनासक्ति होनी ही चाहिये और उस तरहकी छोटीसे-छोटी प्रवृत्तिके लिये भी पश्चात्ताप करने को भावना होनी चाहिये। इस आशयसे प्रथम गमनागमनमें हुई जीवहिंसाका पश्चात्ताप करके उसके सम्बन्धमें हुए दुष्कृतकी क्षमा याचना की जाती है । 'मिच्छा मि दुक्कडं' यह प्रतिक्रमणकी भावनाका बीज है। ये शब्द बोलते समय हृदयमें कँपकँपी होनी चाहिये । कि 'हाय । हाय ! मैंने दुष्टने क्या किया?' यह नहीं भूलना चाहिये कि-भावनाशून्य मिथ्या दुष्कृत यह वाणीकी विडम्बना है या असत्य प्रलाप है। मिथ्या-दुष्कृतका उत्तरीकरण कायोत्सर्गद्वारा होता है अर्थात् 'तस्स उत्तरी' सूत्र और 'कायोत्सर्ग' सूत्र बोलकर एक छोटीसी कायोत्सर्गकी क्रिया २५ श्वासोच्छ्वास प्रमाणकी की जाती है। साधकको यह कायोत्सर्गकी क्रिया स्पष्टतया समझ लेनी आवश्यक है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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