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४५८ चौथे स्वदारा-संतोष-परस्त्री-गमन-विरमण-व्रत के पाँच अतिचार- "अप्परिगहिया इत्तर" परस्त्री गमन किया । अविवाहिता, कुमारी, विधवा, वेश्यादिक से गमन किया। अनंगक्रीड़ा की। काम आदि की विशेष जागृति की अभिलाषा से सराग वचन कहा। अष्टमी, चौदस आदि पर्वतिथि का नियम तोड़ा । स्त्री के अंगोपांग देखे, तीत्र अभिलाषा की। कुविकल्प चिंतन किया । पराये नाते जोड़े । गुड्डेगुड्डियों (ढींगला ढींगली) का विवाह किया या कराया । अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, स्वप्न, स्वप्नांतर हुआ । कुस्वप्न आया । स्त्री, नट, विट, भांड, वेश्यादिक से हास्य किया। स्वस्त्री में सन्तोष न किया, इत्यादि चौथे स्वदारासंतोष-परस्त्री-गमन-विरमण-व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
पांचवें स्थूल-परिग्रह-परिमाण-व्रत के पांच अतिचार"धण-धन्न-खित्त-वत्थू०" धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, सोना चांदी. बर्तन आदि द्विपद-दास, दासी.-चतुष्पद-गो. बैल, घोड़ा आदि, नव प्रकार के परिग्रह का नियम न लिया, लेकर बढ़ाया । अथवा अधिक देखकर मूर्छा-वश माता, पिता, पुत्र, स्त्री के नाम किया। परिग्रह का परिमाण नहीं किया । करके भुलाया । याद न किया। इत्यादि पांचवें
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