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________________ ३१२ शब्दार्थ सुधा-सोदर-वाग - ज्योत्स्ना- मृग-लक्ष्मा-हरिणके लाञ्छनको निर्मलीकृत - दिङ्मुखः धारण करनेवाले। अमृततुल्य धर्म-देशनासे दिशा .मृग-हरिण। लक्ष्मन्-लाञ्छन। ओंके मुखको उज्ज्वल तमाशान्त्यै-अज्ञानका निवारण करनेवाले। __ करनेके लिये। सुधा-अमृत । सोदर-तुल्य । वाग्ज्योत्स्ना-वाणीरूपी च | शान्तिनाजिनः- श्रीशान्तिनाथ न्द्रिका। निर्मलीकृत-उज्ज्वल भगवान् । किये हैं। दिङ्मुख- अस्तु-हो । दिशाओंके मुख । | वः-तुम्हारे । अर्थ-सङ्कलना अमृत-तुल्य धर्म-देशनासे दिशाओंके मुखको उज्ज्वल करनेवाले तथा हरिणके लाञ्छनको धारण करनेवाले श्रीशान्तिनाथ भगवान् तुम्हारे अज्ञानका निवारण करने के लिये हों। १८ ।। मूल श्रीकुन्थुनाथो भगवान् , सनाथोऽतिशयर्द्धिभिः । सुरासुर-नृ-नाथानामेकनाथः श्रियेऽस्तु वः ॥१९॥ शब्दार्थश्रीकुन्थुनाथः भगवान्-श्री- प्रत्येक तीर्थङ्करोंको ३४ कुन्थुनाथ भगवान् । अतिशयरूपी महाऋद्धि होती है। सनाथ:-सहित, युक्त। सुरासुर-नृ - नाथानाम् - सुर, अतिशद्धिभिः-अतिशयोंकी असुर और मनुष्यों के स्वामियोंऋद्धिसे । के । नृ-मनुष्य ।नाथ-स्वामी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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