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________________ ४७३ ५. मुहपत्तीका मध्य भाग बाँये हाथपर डालकर बीचका आवरण पक कर उसे दुहरी करो । [ यहाँसे मुहपत्तीका समेटना आरम्भ होता है । ] ६. फिर दांये हाथकी चार अँगुलियोंके तीनों मध्यभागमें मुहपत्तीको भरो । ७. फिर बाँये हाथकी हथेलीका स्पर्श न हो इस तरह तीन बार कोनी तक लाओ और प्रत्येक बार बोलो कि सुदेव, सुगुरु, सुधर्म आदरू । [ सुदेव, सुगुरु और सुधर्म सम्बन्धी श्रद्धा अपने में प्रविष्ट हो ऐसी इच्छा है । अतः मुहपत्तीको अँगुलियोंके अग्रभागसे अन्दर लाने की क्रिया की जाती है । इसमें पहली बार मुहपत्ती प्रायः अँगुलीके मूल तक लानी चाहिये और उस समय 'सुदेव' बोलना चाहिये | फिर दूसरी बार मुहपत्तीको हथेली के मध्यभाग तक लानी चाहिये और उस समय 'सुगुरु' बोलना चाहिये । तथा तीसरी बारमें मुहपत्ती हाथकी कोनी तक लानी चाहिये और उस समय 'सुधर्म आदरु' । इतने शब्द बोलने चाहिये । ] ८. अब ऊपरकी रीतिसे विपरीत मुहपत्तीको तीन बार कोनीसे अँगुली अगले पर्व तक ले जाओ और कुछ निकाल देते हो उस तरह से बोलो कि कुदेव, कुगुर, कुधर्म, परिहरू । [ यह एक प्रकारकी प्रमार्जन - विधि हुई । इसलिये इसकी क्रिया भी ऐसी ही रखी गयी है । ] प्र - ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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