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________________ ३०० भूर्भुवः स्वस्त्रयोशानं - जो भू- स्वः – स्वर्ग । त्रयी-तीन र्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक ईशान-प्रभुत्व रखनेवाले। इन तीनोंपर सम्पूर्ण प्रभुत्व आर्हन्त्यं प्रणिदध्महे - अरिहन्तके रखता है। तत्त्व ( आर्हन्त्य का हम भूः-पाताल । भुवः-मर्त्यलोक। ध्यान करते हैं। अर्थ-सङ्कलना जो सर्व अरिहन्तोंमें स्थित है, जो मोक्ष-लक्ष्मीका निवासस्थान है, तथा जो पाताल, मर्त्यलोक और स्वर्गलोक इन तीनोंपर सम्पूर्ण प्रभुत्व रखता है, उस अरिहन्तके तत्त्व ( आर्हन्त्य )का हम ध्यान करते हैं ॥१॥ - - -- Pune नामाऽऽकृति-द्रव्य-भावैः, पुनतस्त्रिजगजनम् । क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महे ॥२॥ शब्दार्थनामाऽऽकृति-द्रव्य-भावैः- त्रिजगज्जनम्-तीनों लोकके प्राणिनाम, स्थापना, द्रव्य और क्षेत्रे-क्षेत्र में। भाव-निक्षेपद्वारा। काले-कालमें। नाम-नाम-निक्षेप । आकृति | च-और। -स्थापना-निक्षेप । द्रव्य-द्रव्य सर्वस्मिन्-सर्व । निक्षेप । भाव-भाव-निक्षेप । अर्हतः-अर्हतोंको, अर्हतोंकी। निक्षेप अर्थात् अर्थव्यवस्था। समुपास्महे-हम सम्यग् उपासना पुनतः-पवित्र कर रहे हैं। करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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