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________________ ३२१ स्वामीमें ज्ञानरूपी लक्ष्मी, धैर्य, कीति और कान्तिका समूह स्थित है, ऐसे हे महावीरस्वामी ! मेरा कल्याण करो ॥ २९ ॥ मूल [ मालिनी-वृत्त ] अवनितल-गतानां कृत्रिमाकृत्रिमानां, वरभवन-गतानां दिव्य-वैमानिकानाम् । इह मनुज-कृतानां देवराजार्चितानां, जिनवर-भवनानां भावतोऽहं नमामि ॥३०॥ शब्दार्थअवनितल-गतानां - पृथ्वीतलपर | दिव्य-देवता-सम्बन्धी । वैमास्थित। निक-विमानमें स्थित । अवनितल-पृथ्वीतल। गत- | इह-इस मनुष्यलोकमें। स्थित । मनुज - कृतानां - मनुष्योंद्वारा कृत्रिमाकृत्रिमानां-कृत्रिम अकृ- कराये हुए। त्रिम-अशाश्वत और शाश्वत। मनुज-मनुष्य । कृत-कराये हुए। कृत्रिम-मनुष्यद्वारा बनाये हुए। देवराजाचितानां - देव तथा अकृत्रिम-शाश्वत । राजाओंसे एवं देवराजसे वरभवन-गतानां - भवनपतियोंके पूजित । श्रेष्ठ निवासस्थानमें। जिनवर-भवनानां-श्रीजिनेश्वरवर-श्रेष्ठ । भवन-भवनपति- । देवके चैत्योंको। देवोंका निवासस्थान। भावतः-भावपर्वक। दिव्य-वैमानिकानाम् - दिव्य | अहं-मैं। विमानोंमें स्थित । | नमामि-नमन करता हूँ। प्र-२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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