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'अणुजाणह जस्सुग्गहो' न कह्यो, परठव्यां पुंठे वार त्रण 'वीसिरे वोसिरे' न कह्यो।
पोसहशालामांहि पेसतां 'निसोहि' निसरतां 'आवस्सहि' वार त्रण भणी नहीं।
पुढवी, अप्, तेउ, वाउ, वनस्पति, त्रसकाय-तणा संघट्ट, परिताप, उपद्रव हुआ।
संथारा-पोरिसी-तणो विधि भणवो विसार्यो, पोरिसी-मांहि उंघ्या, अविधे संथारो पार्यो, पारणादिक-तणी चिंता कोधी, कालवेलाए देव न वांद्या, पडिक्कमणुं न कीg, पोसह असूरो लीधो, सवेरो पार्यो, पर्वतिथे पोसह लीधो नहीं।
अग्यारमे पौषधोपवास-व्रत-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि० ।। ११ ।।
बारमे अतिथि संविभाग-व्रते पांच अतिचारसचित्ते निक्खिवणे० ॥
सचित्त वस्तु हेठ उपर छतां महात्मा महासती प्रत्ये असूझतुं दान दीधं, देवानी बुद्धे असूझतुं फेडी सूझतुं कीg, परायुं फेडी आपणुं कीg, अणदेवानी बुद्धे सूझतुं फेडो असूझंतुं कीg, आपणुं फेडी पराजु कीधुं, वहोरवा वेला टली रह्या, असूर करी महात्मा तेडया, मत्सर धरी दान दीधुं, गुणवत आव्ये भक्ति न साचवी, छती शक्ते साहम्मिवच्छल्ल ( सार्मि-वात्सल्य ) न कोg, अनेरां धर्मक्षेत्र सीदातां छती शक्तिए उद्धर्या नहीं, दीन, क्षीण प्रत्ये अनुकंपादान न दोधुं ।
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