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२५८ अर्थ-सङ्कलना__ अन्य सर्व प्रवृत्तियोंका निषेध करता हूँ, निषेध करता हूँ, निषेध करता हूँ। क्षमाश्रमणोंको नमस्कार हो । गौतम आदि महामुनियोंको नमस्कार हो । मूल
२ संथारेकी आज्ञा अणुजाणह जिट्टज्जा! अणुजाणह परम-गुरू! गुरु-गुण-ग्यणेहिं मंडिय-सरीरा!। बहु-पडिपुन्ना पोरिसी, राइय-संथारए ठामि ॥१॥ शब्दार्थअणुजाणह-अनुज्ञा दीजिये। । बहु-पडिपुन्ना-सम्पूर्ण , अच्छी तरह जिट्टज्जा !-हे ज्येष्ठ आर्यों ।
परिपूर्ण । अणुजाणह-अनुज्ञा दीजिये। पोरिसी-पौरुषी। परम-गुरू-!-हे परम-गुरुओं ! पोरिसी-दिन अथवा रात्रिका गुरु-गुण-रयणेहि-उत्तम गुण- चौथा भाग। रत्नोंसे ।
राइय-संथारए-रात्रि-संथारेके मंडिय - सरीरा! - विभूषित । विषयमें । देहवाले !
| ठामि-स्थिर होता हूँ। अर्थ-सङ्कलना
हे ज्येष्ठ आर्यो ! अनुज्ञा दीजिये।
उत्तम गुणरत्नोंसे विभूषित देहवाले हे परम-गुरुओं ( प्रथम ) पौरुषी अच्छी तरह परिपूर्ण हुई है, अतः रात्रि-संथारेके विषयमें स्थिर होता हूँ॥१॥
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