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________________ ६१३ साक्षात् उपयोगसे लगनेवाले कर्मदोषसे बच गयो है, अतः उतना लाभ हुआ मानना । इस प्रकार नियम विचारनेको 'नियम संक्षेप किये' कहते हैं । ( ३२ ) सत्रह प्रमार्जना खमासमण तथा वन्दन करते समय सत्रह स्थानकी प्रमार्जना करनी आवश्यक है । वह इस प्रकार : - दाहिने पैर से कमर के नीचे - के पाँव - पर्यन्त पोछेका सारा भाग, पीछेका कमर के नीचेका मध्यभाग, दाँये पाँवके नीचेका पिछले पाँवतकका पर्व भाग इन तीनोंका चरवलेसे प्रमार्जन करना । उसी प्रकार दाँया पाँव, मध्यभाग और बाँया पाँव इन तीनों के आगेके भागका भी पाँवतक प्रमार्जन करना, इस तरह छ: । नीचे बैठते समय तीन बार भूमि पूँजनी, ऐसे नौ । फिर दाहिने हाथमें मुहपत्ती लेकर उससे ललाटकी दाँयी ओरसे प्रमार्जन करते हुए सारा ललाट, सारा बाँया हाथ, और नीचे कोनी तक, इसके पश्चात् इसी प्रकार बाँये हाथमें मुहपत्ती लेकर बाँयी ओरसे पूँजते हुए सारा ललाट, सारा दाहिना हाथ और नीचे कोनो तक, वहाँसे चरवलेको डण्डीको मुहपत्ती से पूँजना । ऐसे ग्यारह फिर तीनबार चरवलेके गुच्छपर पूँजना और उठते समय तीनबार अवग्रहसे बाहर निकलते समय कटासणपर पूँजना, ऐसे सत्रह प्रमाजैन कहे गये हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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