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________________ परिहरूं" क्यों कि ये धर्मकरणीके अमल्य फलका नाश करनेवाले हैं। इन सबका उपसंहार करते हुए मैं ऐसी भावना रखता हूं कि 'क्रोध और मान तथा माया और लोभ; परिहरू" जो कि क्रमशः राग और द्वेषके स्वरूप हैं। और सामायिक साधनाको सफल बनानेवाली जो मैत्री-भावना है, उसको मैं यथाशक्य प्रयोगमें लाकर 'पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय' इन छ: कायोंके जीवोंकी यतना करूं।' यदि इतना करूं तो यह मुहपत्तीरूपी साधुताका प्रतीक जो मैंने हाथमें लिया है, वह सफल हुआ गिना जाय । ____ मुहपत्ती तथा अङ्गको प्रतिलेखना करते समय ये बोल नीचे लिखे अनुसार बोलने चाहिये : मुहपत्ति पडिलेहते समय विचारने योग्य बोल: ( १ ) प्रथम घुटनोंके बल बैठो, दोनों हाथ दोनों पाँवोंके बीच में रखो, मुहपत्तीकी घड़ी खोलो, दोनों हाथोंसे उसके दोनों कोने पकड़ो और मुहपत्तीके सामने दृष्टि रखो। फिर मनमें बोलो कि ( नीचे जो बड़े अक्षर दिये हैं वे मनमें बोलने के हैं और उनका अर्थ विचारना चाहिये )। [ इस समय मुहपत्तीके एक भागकी प्रतिलेखना होती है अर्थात उसके एक ओरके भागका बराबर निरीक्षण किया जाता है।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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