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________________ ३६४ सव्व-समग्र । लोअ-प्राणो। अजिय-संति-पायया-पूज्य श्रीहिय-कल्याण, हित । मूल- अजितनाथ और श्रीशान्तिनाथ। पावय-प्राप्त करानेवाले. हुतु-हा । मे-मुझे। मार्ग दिखानेवाले। सिब-सुहाण-मोक्ष सुखके । संथुआ-अच्छी प्रकार स्तुत । दायया-देनेवाले । अर्थ-सङ्कलना-- जो छत्र, चँवर, पताका, स्तम्भ, यव, श्रेष्ठ ध्वज, मकर (घड़ियाल), अश्व, श्रीवत्स, द्वीप, समुद्र, मन्दर पर्वत और ऐरावत हाथी आदिके शुभ लक्षणोंसे शोभित हो रहे हैं, जो स्वरूपसे सुन्दर, समभावमें स्थिर, दोष-रहित, गुण-श्रेष्ठ, बहुत तप करनेवाले, लक्ष्मीसे पूजित, ऋषियोंसे सेवित, तपके द्वारा सर्व पापोंको दूर करनेवाले और समग्र प्राणि-समहको हितका मार्ग दिखानेवाले हैं, वे अच्छी तरह स्तुत, पूज्य श्रीअजितनाथ और श्रीशान्तिनाथ मुझ मोक्षसुखके देनेवाले हों ।। ३३-३४-३५ ।। मूल ( दूसरे विशेषकद्वारा उपसंहार ) एवं तव-बल-विउलं, थुयं मए अजिय-संति-जिण-जुअलं। ववगय-कम्म-रय-मलं, गई गयं सासयं विउलं॥३६/३५] -गाहा ॥ . तं बहु-गुण-प्पसायं, मुक्ख-सुहेण परमेण अविसायं । नासेउ मे विसायं, कुणउ अपरिसाविअ-पसायं ॥३७॥[३६] -~-गाहा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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