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________________ ३९२ शब्दार्थ पूर्ववत् । अर्थ-सङ्कलना सर्व मङ्गलोंमें मङ्गलरूप, सर्व कल्याणोंका कारणरूप और सर्व धर्मोंमें श्रेष्ठ ऐसा जैन शासन (प्रवचन) सदा विजयी हो रहा है ॥२४ ।। सूत्र-परिचय___महर्षि नन्दिषेण कृत 'अजित-शान्ति-स्तव' अपनी मङ्गलमय रचनाके कारण उपसर्ग-निवारक और रोग-विनाशक माना जाता है; श्रीमानदेवसूरिकृत 'शान्ति-स्तव' अपनी मन्त्रमय रचनाके कारण सलिलादिभयविनाशी और शान्त्यादिकर माना जाता है; और वादिवेताल श्रीशान्तिसूरि कृत यह शान्तिपाठ जो सामान्यतया 'बृहच्छान्ति' अथवा 'वृद्धशान्ति ( बड़ी शान्ति ) के नामसे पहचाना जाता है, यह इसके अन्तर्गत शान्तिमन्त्रोंके कारण शान्तिकर, तुष्टिकर और पुष्टिकर माना जाता है । यह सूत्र जिनविम्बकी प्रतिष्ठा, रथयात्रा एवं स्नात्रके अन्तमें बोला जाता है तथा पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणके प्रसङ्गपर शान्तिस्तव ( लघुशान्ति ) के स्थानपर बोला जाता है । ५७ संतिनाह-सम्मद्दिट्ठिय-रक्खा ['संतिकरं-स्तवन'] [ गाहा ] संतिकरं संतिजिणं, जग-सरणं जय-सिरीइ दायारं । समरामि भत्त-पालग-निव्वाणी-गरुड-कय-सेवं ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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