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________________ ५५७ निश्चय नय व्यवहार दोय, एकान्ते न ग्रहीए। अरजिन बीज दिने चव्या, एम आगळ कहोए ॥ ५ ॥ वर्तमान चोवीशी ए, एम जिन-कल्याण । बोज दिने केई पामिया, प्रभु नाण-निर्वाण ॥ ६ ॥ एम अनन्त चोवीशीए, हुआ बहु कल्याण ।। जिन उत्तम पद पद्मने, नमतां होय सुख-खाण ॥ ७॥ (१३) ज्ञानपञ्चमीका चैत्यवन्दन त्रिगड़े बेठा वीर जिन, भाखे भविजन आगे । त्रिकरण शुं त्रिहुं लोकजन, निसुणो मन रागे ॥१॥ आराधो भली भांतसे, पाँचम अजुआली । ज्ञान-आराधन कारणे, एहिज तिथि निहाली ॥२॥ ज्ञान विना पशु सारिखा, जणो इणे संसार । ज्ञान-आराधनथी ला, शिव-पद-सुख श्रीकार ।। ३ ।। ज्ञानरहित किरिया कही, कास-कुसुम उपमान । लोकालोक-प्रकाशकर, ज्ञान एक परधान ॥ ४॥ ज्ञानी श्वासोच्छवासमां, करे कर्मनो छेह । पूर्व कोडो वरसां लगे, अज्ञाने करे जेह ॥ ५ ॥ देश-आराधक क्रिया कही, सर्व-आराधक ज्ञान । ज्ञानतणो महिमा घणो, अङ्ग पाँचमे भगवान ॥ ६ ॥ पञ्च मास लघुपञ्चमी, जाव जोव उत्कृष्टि । पञ्च वरस पञ्च मासनी, पञ्चमी करो शुभ दृष्टि।। ७ ।। एकावन हि पञ्चनो, काउस्सग्ग लोगस्स केरो। उजमणुं करो भावशुं टालो भव-फेरो॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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