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१६९ [गुरु-खामेह ] [शिष्य ] इच्छं, खामेमि देवसिअं (राइअ)।
जं किंचि अपत्तिअं, परपत्तिअं, भत्ते, पाणे, विणए, यावच्चे, आलावे, संलावे, उच्चासणे, समासणे, अंतरभासाए, उवरिभासाए ।
जं किंचि मज्झ विणय-परिहीणं सुहुमं वा बायरं वा तुब्भे जाणह, अहं न जाणामि, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ शब्दार्थइच्छाकारेण संदिसह-इच्छा- ' परपत्ति-विशेष अप्रीतिकारक ।
पूर्वक आज्ञा प्रदान करो। भत्ते-आहारमें। भगवन् !-हे भगवन् !
पाणे-पानीमें। अन्भुटिओ हं-मैं उपस्थित विणए-विनयमें। __ हुआ हूँ।
वेयावच्चे-वैयावृत्त्यमें । अभितर - देवसिअं-दिनके आलावे-बोलने में । किये हुए।
संलावे-बातचीत करने में । खामे-खमानेके लिये, क्षमा | उच्चासणे-( गुरु से ) उच्च आसन___ मांगनेके लिये।
पर बैठने में, ऊँचा आसन ( खामेह-खमावो-क्षमा माँगो ) रखने में । इच्छं-चाहता हूँ।
समासणे-(गुरुके आसनके ) समान खामेमि-खमाता हूँ, क्षमा आसन रखने में । माँगता हूँ।
अंतरभासाए-बीच में बोलने में देवसि-दिवस-संबंधी अपराध । उवरिभासाए-गुरुसे ऊपर होकर जं किंचि-जो कुछ।
' बोलने में। अपत्ति-अप्रीतिकारक । जं किंचि-जो कोई ( वर्तन )।
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