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५४७ लोकान्तिक वचने करी, वरस्या वरसीदान । कर-कांडे प्रभु-पूजना, पूजो भवि बहुमान ॥ ३ ॥ मान गयुं दोय अंसथी, देखी वीर्य अनन्त । भुजाबले भवजल तर्या, पूजो स्कन्ध महन्त ।। ४॥ सिद्धशिला गुण ऊजली, लोकान्ते भगवन्त । वसिया तिणे कारण भवि, शिर शिखा-पूजन्त ॥५॥ तीर्थकर-पद-पुण्यथी, त्रिभुवनजन सेवन्त । त्रिभुवन-तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवन्त ॥ ६॥ सोल पहोर प्रभु देशना, कण्ठे विवर वर्तुल । मधुर ध्वनि सुरनर सुणे, तिणे गले तिलक अमूल ॥७॥ हृदय-कमल-उपशम बले, बाल्या राग ने रोष । हिम दहे वन-खण्डने, हृदय तिलक सन्तोष ॥ ८॥ रत्नत्रयो गुण ऊजली, सकल सुगुण वित्राम । नाभिकमलनी पूजना, करतां अविचल धाम ।।९॥ उपदेशक नव तत्त्वना, तिणे नव अङ्ग जिणन्द । 'पूजो वहुविध रागशुं, कहे शुभवीर मुणिन्द ॥१०॥
[२१] अष्टप्रकारी पूजाके दोहे
१ जल-पूजा जल-पूजा जुगते करों, मेल अनादि विनास । जल-पूजा फल मुझ हजो, मागो एम प्रभु पास ॥ १ ॥
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