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मूल
[ शार्दूलविक्रीडित ] देवोऽनेक-भवार्जितोर्जित-महापाप-प्रदीपानलो , देवः सिद्धि-वधू-विशाल-हृदयालङ्कार-हारोपमः। देवोऽष्टादश-दोष-सिन्धुरघटा-निर्भेद-पश्चाननो,
भव्यानां विदधातु वाञ्छितफलं श्रीवीतरागो जिनः॥३२॥ शब्दार्थदेवः-देव।
विशाल-विस्तृत । हृदयअनेक - भवाजितोजित - महा- वक्ष:-स्थल । अलङ्कार
पाप - प्रदीपानलः - अनेक अलङ्कृत करना। हारोपमभवोंमें उपाजित-इकट्ठे किये हारके समान । हुए तीव्र महापापोंको दहन देवः-देव। करने के लिये अग्नि-समान । | अष्टादश - दोष - सिन्धुरघटाअनेक-असंख्य । भव-जन्म- निर्भेद-पञ्चाननः - अठारह
मरणके फेरे । अजित-इकट्टे दूषणरूपी हाथीके समूहका किये हुए। जित-बलवान्, भेदन करनेमें सिंहसदृश । तीव्र ।महापाप-बड़ा पाप। अष्टादश-अठारह । दोष-दूषण। प्रदीप-जलाना, दहन करना। सिन्धुर-हाथी। घटा-समूह । अनल-अग्नि ।
निर्भेद-भेदनकी क्रिया, भेदन देवः-देव ।
करना । पञ्चानन-सिंह । सिद्धि-वधू- विशाल - हृदया- भव्यानां-भव्यप्राणियोंको ।
लङ्कार-हारोपमः-मुक्तिरूपी | विदधातु-प्रदान करें। स्त्रीके विस्तृत वक्षःस्थलको अल- वाञ्छित-फलं- इच्छित फल ।
कृत करने में हारके समान । श्रीवीतरागः जिनः - श्रीवीतराग सिद्धि-मुक्ति । वधू-स्त्री। जिनेश्वर देव ।
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