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प्रकाशकीय-निवेदन
आजसे १३ साल पहले जैन साहित्य विकास मण्डलने प्रतिक्रमणसूत्र बोध टीका भा० १-२-३ का संक्षिप्त रूपान्तर हिन्दी एवं गुजराती इन नों भाषाओंमें समाजके समक्ष प्रस्तुत किया।
इन प्रकाशनोंकी हजारो प्रतियाँ देखते देखते ही बिक गई। और उनकी मांग सतत चालू रही।
फलस्वरूप हिन्दी पंचप्रतिक्रमणसूत्रकी दूसरी आवृत्ति आज वाचकोंके समक्ष रखी गयी है। इसमें प्रत्येक सूत्रका मूलनाम उसके शीर्षस्थानपर बड़े अक्षरोंमें दिया गया है, और प्रचलित नाम नीचे कोष्ठकमें दिखलाया गया है। इसके पश्चात् मूलपाठ दिया गया है, जिसमें पद्योंके छन्दका नामनिर्देश भी है। 'संसार-दावानल-थुई', 'वर्धमान-स्तुति', 'प्राभातिकस्तुति', 'पासनाह-जिण-थुई', आदि सूत्र देखनेसे जिसका स्पष्टरूप सामने
। तदनन्तर दो विभागोंमें शब्दार्थ है, जिसमें प्रथम शब्दका भूल अर्थ दिया गया है और जहाँ उसका लाक्षणिक अथवा तात्पर्यार्थ दिखलानेको आवश्यकता प्रतीत हुई, वहाँ दूसरा अर्थ भी दिया गया है । जैसे कि
मत्थएण-मस्तकसे, मस्तक झुकाकर । अयरामरं ठाणं-अजरामर स्थानको, मोक्षको ।
यदि शब्द सामासिक हो, तो ऐसा अर्थ दिखलाने के पश्चात् पृथक्-पृथक् शब्दोंके अर्थ भी बतलाये हैं। जैसे
नवविह-बंभचेर-गुत्ति-धरो-नवविध ब्रह्मचर्यको गुप्तिको धारण करनेवाला।
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