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दिव्य-नागं-दिव्य हाथी पर यक्षः-यक्ष । विचरति-विचरण करता है, विच- सर्वानुभूतिः-सर्वानुभूति । रण करनेवाला।
दिशतु-प्रदान करे। गगने-आकाशमें।
मम-मुझे। कामदः- सम्पूर्ण मनःकामनाओंको
सदा-सदा। पूर्ण करनेवाले। कामरूपी-इच्छित रूपको धारण | सर्वकार्येषु-सब कार्योंमें । करनेवाला।
सिद्धिम्-सिद्धिको। अर्थ-सङ्कलना
बाल्यावस्थामें मेरु पर्वतके शिखरपर स्नात-अभिषेक कराये हुए प्रभुके रूपका अवलोकन करते हुए उत्पन्न हुई अद्भुत-रसकी भ्रान्ति से चञ्चल बने हुए नेत्रोंवाली इन्द्राणीने क्षीरसागरका जल रह तो नहीं गया? इस शङ्का से अपनी नेत्रकान्तिसे ही उज्ज्वल बने हुए जिनके मुखको बार-बार पोंछा, वे श्रीमहावीर जिन जयको प्राप्त हो रहे हैं ।। १।।
सर्व जातिके सुर और असुरोंके इन्द्रोंने जिनका जन्माभिषेक हंसके पाँखोंसे उड़े हुए कमल-परागसे पीत ऐसे क्षीर समुद्रके जलसे भरे हुए और अप्सराओंके स्तन-समूहकी स्पर्धा करनेवाले सुवर्णके घड़ोंसे मेरुपर्वतके रत्नशैल नामक शिखरपर किया है, उनके चरणोंमें मैं नमन करता हूँ॥ २ ॥ ____ श्रीजिनेश्वरदेवके मुखसे अर्थरूपमें प्रकटित और गणधरोंद्वारा सूत्ररूपमें गुंथे हुए, बारह अङ्गवाले, विस्तृत, अद्भुत रचना-शैलीवाले, बहुत अर्थोंसे युक्त, बुद्धिनिधान ऐसे श्रेष्ठ मुनि-समूहसे धारण किये हुए, मोक्षके द्वार समान, व्रत और चारित्ररूपी फलवाले, जानने
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