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________________ ३४३ सव्व-लोअ-भाविय - पभाव ! । णेय !-हे जानने योग्य ! -हें समस्त विश्वम प्रकाटत पइस-प्रदान करो। प्रभाववाले! लोअ-लोक, विश्व । भाविय- मे-मुझे। प्रकटित । प्पभाव-प्रभाव। समाहि-समाधि । अर्थ-सङ्कलना हे देवेन्द्र, दानवेन्द्र, चन्द्र तथा सूर्यद्वारा वन्दन करने योग्य ! हे आनन्द-स्वरूप ! ( प्रसन्नता पूर्ण ! ), हे अतिशय महान् ! हे परम-सुन्दर रूपवाले ! हे तपायी हुई पाटकी चाँदी जैसी उत्तम, निर्मल, चकचकित और धवल दन्त-पंक्तिवाले ! हे सर्व शक्तिमान् ! हे कीर्तिशाली ! हे अत्यन्त तेजोमय ! हे मुक्तिमार्गको बतलानेमें श्रेष्ठ ! ( अथवा हे परम त्यागी ! ) हे युक्ति-युक्त-वचन बोलनेमें उत्तम ! हे योगीश्वर ! हे देव-समूहसे भी ध्यान करने योग्य ! हे समस्त विश्वमें प्रकटित प्रभाववाले और जानने योग्य श्रीशान्तिनाथ भगवान् ! मुझे समाधि प्रदान करो ॥ १४ ॥ मूल ( सन्दानितकद्वारा श्रोअजितनाथकी स्तुति ) विमल-ससि-कलाइरेअ-सोम, वितिमिर-सूर-कलाइरेअ-ते। तिअस-वह गणाइरेअ-रूवं, धरणिधर-प्पवराइरेअ-सारं ॥१५॥ -कुसुमलया ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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