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३३४ अज्जव-मद्दव-खंति - विमुत्ति- | दमुत्तम - तित्थयरं - इन्द्रिय -
समाहि-निहिं-सरलता, मद्- दमनमें उत्तम ऐसे तीर्थङ्करके। ता, क्षमा और निर्लोभताद्वारा
दम-इन्द्रियोंका दमन । समाधिके भण्डार।
संतिमुणी !-हे शान्तिनाथ !
मम-मुझे। अज्जव-सरलता। मद्दव-मृदुता। संतिसमाहि-वरं-श्रेष्ठ शान्तिखंति-क्षमा। विमुत्ति-निर्लो
समाधि । भता। समाहि-समाधि। संति-उपद्रवरहित स्थिति । निहि-निधि, भण्डार ।
समाहि-चित्तकी प्रसन्नता। संतिकरं-शान्ति करनेवाले।
वर-श्रेष्ठ । पणमामि-प्रणाम करता हूँ। दिसउ-दो, देनेवाले बनो। अर्थ-सङ्कलना___श्रेष्ठ और निर्दोष पराक्रमको धारण करनेवाले; सरलता, मृदुता, क्षमा, और निर्लोभता द्वारा समाधिके भण्डार; शान्ति करनेवाले; इन्द्रिय-दमनमें उत्तम ऐसे तीर्थङ्करको मैं प्रणाम करता हूँ। हे शान्तिनाथ ! मुझे श्रेष्ठ समाधि देनेवाले बनो ॥ ८॥ मूल
(सन्दानितकद्वारा श्रीअजितनाथकी स्तुति ) सावत्थि-पुव्व-पत्थिवं च वरहत्थि-मत्थय-पसत्थवित्थिन्न-संथियं थिर-सरिच्छ-वच्छं,
मयगल-लीलायमाण-वरगंधहत्थि-पत्थाण-पत्थियं संथ-वारिहं ।
हत्थि-हत्थ-बाहुं धंत-कणग-रुअग-निरुवहयपिंजरं पवर-लक्खणोवचिय-सोम-चारु-रूवं.
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