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किन्तु किसी कारणवश बादमें वह त्याग दी और ज्योतिष शास्त्र के द्वारा अपनी महत्ता प्रदर्शित कर जैन-साधुओंकी निन्दा करने लगा । एक समय उसने राजाके पुत्रकी जन्मकुण्डली बनायी और उसमें लिखा कि 'पुत्र सौ वर्षका होगा !' राजाको यह बात सुनकर अत्यन्त हर्ष हुआ और वराहमिहिरका बहुत सम्मान किया। इस प्रसङ्गका लाभ लेकर वराहमिहिरने राजाके कान भर दिये कि महाराज ! आपके यहाँ कुँवरका जन्म होनेसे सभी प्रसन्न होकर आपसे मिलने आये किन्तु जैनोंके आचार्य भद्रबाहु नहीं आये, उसका कारण तो जानिये ? राजाने उस सम्बन्धमें खोज की तो श्रीभद्रबाहुस्वामीने उत्तर दिया कि निष्कारण दो बार क्यों जाना-आना ? यह पुत्र तो सातवें दिन बिल्लीके द्वारा मृत्युको प्राप्त होनेवाला है । राजाने यह सुनकर पुत्र रक्षाके लिये चौकी-पहरे रखे और गाँवकी सभी बिल्लियाँ दूर भेज दीं। परन्तु हुआ ऐसा कि सातवें दिन धात्री ( धाय ) दरवाजेमें बैठी हुई पुत्रको दूध पिला रही थी, इतने में बालकपर अकस्मात् लकड़ीकी अर्गला ( आगल) गिर पड़ी और वह मरणको प्राप्त हुआ। वराहमिहिर तो इससे बहुत ही लज्जित हुआ। श्रीभद्रबाह इस समय राजासे मिलने गये और संसारका स्वरूप समझाकर धैर्य दिया। राजाने उनके ज्योतिष-- ज्ञानकी प्रशंसा की और साथ-ही यह भी पूछा कि बिल्लीसे मरण होगा यह बात सत्य क्यों नहीं हुई ? इसी समय सूरिजीने लकड़ीकी आगल मँगायी तो उसके सिरेपर बिल्लीका मुँह खुदा हुआ था।
इस प्रसङ्गसे वराहमिहिरका द्वेष बढ़ा और वह मरकर व्यन्तरदेव बनकर जैनसङ्घमें महामारी-प्लेग जैसे रोग फैलाने लगा। परन्तु श्रीभद्रबाहुस्वामीने ' उवसग्गहरं ' स्तोत्र बनाकर सङ्घको कण्ठस्थ करनेके लिये कहा, उससे वह उपद्रव दूर हुआ, तबसे यह स्तोत्र प्रचलित है।
. इस स्तोत्रमें अनेक चमत्कारी मन्त्र-यन्त्र छिपे हुए हैं, जो इसपर रचित विविध टीकाओंसे जाने जा सकते हैं। इस स्तोत्रकी मूल गाथाएँ
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