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पत्रलेखा तथा विविध प्रकारके बड़े आभूषणोंवाली, देदीप्यमान, प्रमाणोपेत अङ्गवाली अथवा विविध नाटय करनेके लिये सज्जित तथा भक्ति-पूर्ण वन्दन करनेको आयी हुई देवाङ्गनाओंने अपने ललाटोंसे जिनके सम्यक् पराक्रमवाले चरणोंको वन्दन किया है तथा बार-बार वन्दन किया है, ऐसे मोहको सर्वथा जीतनेवाले, सर्व क्लेशोंका नाश करनेवाले जिनेश्वर श्रीअजितनाथको मन, वचन और कायाके प्रणिधान-पूर्वक मैं नमस्कार करता हूँ॥२५-२६२७-२८ ।।
मूल
( दूसरे कलापकद्वारा श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) थुय-चंदियस्सा, रिसि-गण-देव-गणेहिं । तो देव-वहुहिं, पयओ-पणमियअस्सा ॥ २९ ॥
--माङ्गलिका ॥
जस्स-जगुत्तम-सासण-अस्सा, भत्ति-वसागय-पिंडियआहिं । देव-वरच्छरसा-बहुआहिं, सुर-वर-रइगुण-पंडियाहिं ॥ ३० ॥ [ ३० ]
-भासुरयं ॥ वंस-सद्द-तंति-ताल-मेलिए तिउक्खराभिराम-सद्द-मी सएकए [अ सुइ-समाणणे अ सुद्ध-सज्ज-गीय-पाय
जाल-घंटिआहिं।
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