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________________ संज्ञक उपद्रवसे, किनियोंके उपद्रवसे रक्षशान्ति कर; श .१९८ शान्ति च कुरु कुरु-और | पुष्टि कुरु कुरु-पुष्टि कर पुष्टि . शान्ति कर, शान्ति कर । कर। सदा-निरन्तर। इति-इति, समाप्ति । स्वस्ति च कुरु कुरु-और क्षेम तुष्टिं कुरु कुरु-तुष्टि कर, ____ कर क्षेम कर। .. तुष्टि कर। त्वं-तू । अर्थ-सङ्कलना____ और तू जलभयसे, अग्निभयसे, विषभयसे, सर्पभयसे, दुष्टग्रहोंके भयसे, राजभयसे, रोगभयसे, रणभयसे, राक्षसोंके उपद्रवसे, शत्रुसमूहके उपद्रवसे महामारीके उपद्रवसे, चोरके उपद्रवसे, ईतिसंज्ञक उपद्रवसे, शिकारी ( हिंस्र ) पशुओंके उपद्रवसे और भूत, पिशाच तथा शाकिनियोंके उपद्रवसे रक्षण कर ! रक्षण कर ! उपद्रव-रहित कर, उपद्रव-रहित कर; शान्ति कर; शान्ति कर; तुष्टि कर, तुष्टि कर; पुष्टि कर, पुष्टि कर; क्षेम कर, क्षेम कर ॥ १२-१३ ॥ मूल भगवति ! गुणवति ! शिव-शान्ति-तुष्टि पष्टि-स्वस्तीह कुरु कुरु जनानाम् । ओमिति नमो नमो हाँ ह्रीं हूँ हः यः क्षः ही फट फट् स्वाहा ॥१४॥ शब्दार्थभगवति !-हे भगवती! शिव-शान्ति - तुष्टि - पुष्टिगुणवति ! हे गुणवती ! स्वस्ति इह कुरु कुरु-आप गुण-सत्त्व, रजस् और तमस् । यहाँ निरुपद्रवता, शान्ति, तुष्टि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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