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४६९ रसगारव, ऋद्धिगारव, सातागारव परिहरू । मायाशल्य, नियाणशल्य, मिथ्यात्वशल्य परिहरू। क्रोध, मान परिहरू। माया, लोभ परिहरू। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकायकी रक्षा करू । वायुकाय, वनस्पतिकाय त्रसकायकी जयणा करूँ।
سه له لم لم له له زه
वृद्धसम्प्रदायके अनुसार ये 'बोल' मनमें बोले जाते हैं और इनका अर्थ विचारा जाता है । इसमें 'उपादेय' और 'हेय' वस्तुओंका विवेक अत्यन्त बुद्धिमानीसे किया गया जैसे कि--प्रवचन यह तीर्थस्वरूप है, इसलिए प्रथम इसके अङ्गरूप 'सूत्र और अर्थको तत्त्वपूर्वक श्रद्धा करनी' अर्थात् सूत्र और अर्थ दोनोंका तत्त्वरूप-सत्यरूप मानकर उसमें श्रद्धा रखनी चाहिये और उस श्रद्धामें अन्तरायरूप “सम्यक्त्व-मोहनीय, मिश्र-मोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय" ये तीन प्रकारके मोहनीय कर्म होनेसे इनका त्याग करनेकी भावना करनी चाहिये। मोहनीय कर्ममें भी राग मुख्यरूपेण परिहरणीय है। उसमें प्रथम 'कामराग, फिर स्नेहराग और अन्तमें दृष्टिरागको छोड़ना चाहिये; क्योंकि उक्त प्रकारका राग दूर हुए बिना सुदेव, सुगुरु और सुधर्मका आदर नहीं हो सकता। यहाँ सुदेव, सुगुरु और सुधर्मकी महत्ताका विचार कर उनका आदर
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