Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अर्थ-जिनके आधारपर जीवोंकी सचा निर्भर हो वे प्राण कहे जाते हैं। वे प्राण द्रव्यप्राण और भाव| प्राणके भेदसे दो तरहके हैं। भावप्राण-ज्ञान दर्शन आदि चैतन्यस्वरूप अनेक प्रकार हैं और द्रव्यप्राणस्पर्शन रसना घ्राण नेत्र और श्रोत्र ये पांच इंद्रियां, मनोबल, वचनबल, कायवल ये तीन बल,आयु और श्वासोच्छ्वास ये दश हैं। इनमें एकेंद्रियके ४ प्राण, द्वींद्रियके ६, त्रींद्रियके ७, चतुरिद्रियके ८, असैनी
पंचेंद्रियके ९ और सैनी पंचेंद्रियके १० होते हैं । एफेंद्रिय आदि जातिके. अनुसार दश प्राणों में हीन ||| अधिकरूपसे पाये हुए प्राणोंके आधारपर अपनी जीवन पर्यायका अनुभव करता हुआ जो जीचे, जीया | और जीवेगा, वह जीव कहा जाता है। यद्यपि वर्तमानमें ये प्राण सिद्धोंमें नहीं तथापि पहिले थे इस| लिये भूतपूर्व नैगमनयकी अपेक्षा सिद्ध भी जीव हैं। यदि यहांपर यह कहा जाय कि भूतपूर्व नैगमकी ||5|| की अपेक्षा सिद्धोंमें दश प्राण मान भी लिये जाय तो भी वर्तमानमें तो उनके वे हैं नहीं इसलिये उन्हें वर्त-18
मानमें जीव नहीं कहा जा सकता सो ठीक नहीं। यद्यपि उनके द्रव्य प्राणोंका सिद्ध अवस्थामें अभाव है तथापि ज्ञान दर्शन रूप भाव प्राण उनके मौजूद हैं और प्रतिसमय वे उनका अनुभव किया करते हैं। इसलिये भावप्राणों की अपेक्षा वर्तमानमें भी वे जीव हैं अथवा 'जीव' यह रूढि शब्द है । रूढि शब्दका जो व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है वह केवल शब्दसिद्धिकेलिये होता है हर एक अवस्थामें वह अर्थ रहै, यह कोई नियम नहीं जिसतरह 'गच्छतीति गौः' जो गमन करे वह गाय है यहां यद्यपि व्युत्पचिलभ्य | 'गमन करना' अर्थ है तथापि गायको सदा गमन ही करना चाहिये तभी वह गाय कही जायगी अन्यथा ||
१विकाले चदु पाणा इंदिय वलमाउ आणपाणो य । ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ॥३॥ द्रव्यसंग्रह । || २ बीती चातको वर्तमानमें मान लेना भूतपूर्व नैगमनय है।
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