Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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हैअमाध्य भी रोगोंकी निवृत्चिकी कारण औषधार्द्ध है और वह आमर्श १ खेल २ जल्ल । मल ४ है विट ५ म^षधि प्राप्तास्याविष ७ और दृष्टिविष ८ के भेदसे आठ प्रकारको है । आमर्शका अर्थ स्पर्श
है जिनके हाथ पैर आदिका स्पर्श औषधरूप होगया हो अर्थात् जिनके हाथ पैर आदिके स्पर्शसे असाध्य , भी रोग तत्काल नष्ट हो जाय वे आमीषधि नामक ऋद्धिके धारक हैं। श्वेलका अर्थ थूक है। ए
जिन मुनियोंका थूक ही औषधरूप होगया हो वे क्ष्वेलोषधि नामक ऋद्धिके धारक कहे जाते हैं अर्थात् * वेलोषधि ऋद्धिके धारक मुनियों के थूकके स्पर्शमात्रसे रोग शांत हो जाते हैं। पसेवसाहित धूलिका है * समूह जल्ल कहा जाता है। जिन मुनियोंका जल्ल ही औषधरूप परिणत होगया हो अर्थात् उनके जल्ल
के स्पर्शमात्रसे रोग दर हो जाते हों वे जलौषधि ऋद्धि प्राप्त मनि हैं। कान नाक दांत और आंखका १
मल ही जिनका औषधि बन गया हो अथात् उस मलके स्पर्शमात्रसे ही समस्त रोग दर हो जाते हों वे ६ मलौषधि नामक ऋद्धिके धारी कहे जाते हैं। विटका अर्थ विष्ठा है जिन मुनियों की विष्ठा ही औषधस्वरूप हूँ परिणत हो गई हो जिसके कि स्पर्शसे कठिनतम भी रोग नष्ट होते हों वे विडोषधि ऋद्धि प्राप्त मुनि है कहे जाते हैं । अंग प्रत्यंग नख दंत केश आदि अवयवोंको स्पर्श करनेवाले वायु आदि पदार्थ जिनके
औषधिरूप हो गये हों अर्थात् जिन मुनियोंके अंग आदिको स्पर्शनेवाले वायु आदिसे ही रोगसमूल नष्ट 3 हो जाय वे मुनि सर्वोषधि ऋद्धि प्राप्त कहे जाते हैं। भयंकर विष मिला हुआ भी आहार जिनके मुखमें
जाते ही निर्विष हो जाता है अथवा जिनके मुखसे निकले हुए वचनके सुननेमात्रसे महाविषसे व्याप्त भी मनुष्य निर्विष हो जाते हैं वे आस्याविष नामक ऋद्धिके धारक मुनि कहे जाते हैं। तथा जिन मुनियोंके दर्शनमात्रमे ही अत्यंत भयंकर विषसे दूषित भी तत्काल विषराहत हो जाय वे दृष्टिविष नामक ऋद्धिके धारक मुनि कहे जाते हैं।