Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
है। आठ यव मध्यभागोंका एक उत्सेघांगुल होता है। इस उत्सेघांगुल द्वारा नारकी तिथंच देव मनुष्य 18 अकृत्रिम चैत्यालय और प्रतिमाओंके शरीरोंकी ऊंचाई ली जाती है । पांचसौ गुना वह उत्सेधांगुल १७५/६ प्रमाणांगुल कहा जाता है। तथा यही प्रमाणांगुल अवसर्पिणी कालके प्रथम चक्रवर्तीका आत्मांगुल
है कहा जाता है । उस समय उस आत्मांगुलसे गांव नगर आदिका प्रमाण गिना जाता है। तथा प्रथम | चक्रवर्तीकी उत्पत्तिका जो युग है उस युगके अतिरिक्त जो युग हैं उनमें जिस कालमें जो मनुष्य हों उन | मनुष्योंके आत्मांगुल प्रमाणसे ग्राम नगर आदिका प्रमाण लिया जाता है । जो ऊपर प्रमाणांगुलका का वर्णन किया गया है उससे द्वीप समुद्र उनकी जगती और वेदी पर्वत विमान नरकोंके प्रस्तार आदि
| अकृत्रिम चीजोंकी लंबाई चौडाई आदिका प्रमाण किया जाता है। छह अंगुलोंका एक पाद कहा जाता 15. है बारह अंगुलोंकी एक वितस्ति (विलायद) कही जाती है। दो वितस्तियोंका एक हाथ, दो हाथोंका | एकगज, दोगजोंका एक दंड, दो हजार दंडोंका एक कोश और चारकोशोंका एकयोजन कहा जाता है।
पल्यं त्रिविधं व्यवहारोद्धाराद्धाविकल्पादन्वर्थात् ॥८॥ व्यवहारपल्य, उद्धारपल्प, और अद्धापल्यके भेदसे पल्य तीन प्रकारका है। ये तीनों पत्य सार्थक नामके धारक हैं। इनमें उद्धार और अद्धापल्यके व्यवहारमें कारण होनेसे पहिले पल्यका नाम व्यवहार | पल्य है । इस व्यवहारपल्यसे किसी भी चीजका प्रमाण नहीं होता। दुसरे पल्यका नाम उद्धार पल्य है।
8 उससे निकाले हए रोमच्छेदोंसे द्वीप और समद्रों की संख्याका निर्णय होता है इसलिये उसका उद्धारपल्य । यह सार्थक नाम है। तीसरे पत्यका नाम अद्धापल्य है और उसका अर्थ अद्धाकाल है । इससे आयुकी
स्थिति कोकी स्थिति आदि जानी जाती है । इनका खुलासा तात्पर्य इसप्रकार है
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