Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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समझ लेनी चाहिये इस रीतिसे.एक भी,उत्पाद द्रव्य क्षेत्र आदिकी अपेक्षा अनंतरूप हो जाता है। यदि इन उत्पादोंको भिन्न भिन्न न माना जायगा तो सब एक हो जायगे इस रीतिसे घटका उत्पाद और पटका उत्पाद दोनोंको एक कहना होगा। तथा
___उससमय तक जो उत्पन्न नहीं हुवा है ऐसे द्रव्यके उत्पादमें जो ऊर्ध्व अधः तिरछापन अंतरित है (ढकाहुवा) अनंतरित (खुला हुवा ) एकांतर आदि (एक आदिसे ढका हुवा) पूर्व दिशा पश्चिम दिशा
उत्तर दिशा दक्खिन दिशा, महत्त्व अल्पत्व आदि, गुणोंके भेद रूप आदि गुणोंके अधिक हीन स्वरूप अनंत भेद, तीन लोक तीन काल विषय संबंधी भेद सहकारी कारण पडते हैं वे अनेक हैं एवं उनकी
अपेक्षा उत्पाद भी अनेक हैं। तथाही अनेक अवयवस्वरूप जो स्कंध और प्रदेशोंके भेद उनकी समानता और विषमतासे अनेक उत्पाद | ा होते हैं इसलिए द्रव्य आदिकी अपेक्षा एक भी उत्पाद अनेकस्वरूप है । तथा जल आदिका धारण करना लाना देना रखना भय हर्ष शोक परिताप और भेदका उत्पन्न करना इत्यादि अपनी कार्यकी है। सिद्धिकेलिए अनेक उत्पाद होते हैं इसलिए द्रव्य आदिको अपेक्षा एक भी उत्पाद अनेकस्वरूप है। नथा-1
जिस काल में उत्पाद हो रहा है उसी कालमें जितने उत्पाद हें उतने ही उनके प्रतिपक्षस्वरूप विनाश हैं अर्थात जब उपपाद अनेकस्वरूप हैं तब उनके विनाश भी अनेकस्वरूप हैं क्योंकि यह नियम है कि | जिसका पहिले नाश नहीं हुआ है उसकी आगे उत्पत्ति नहीं हो सकती किंतु जिसका विनाश है उसीकी | | उत्पत्ति है इसलिए उपपादोंकी जितनी संख्या होगी विनाशोंकी भी उतनी ही संख्या होगी। तथा उप-14|११५१ पाद और विनाशोंकी प्रतिपक्षी स्थिति भी उतनी ही है अर्थात् जिसमकार उपपाद और विनाश अनेक
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