Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
GULABIRBALEKASARAMBAR
शब्द द्योतन करेगा ? उसका समाधान यह है कि अभेद संबंध वा अभेद उपचारसे जिन शब्दोंका प्रयोग किया गया है उन्हीं शब्दोंके दूसरे धर्म वाच्य वन जाते हैं अर्थात् जहाँपर अभेदसंबंध वा अभेद उपचारसे आस्तित्व शब्दका उल्लेख किया गया है उस आस्तत्व शब्दका वाच्य जैसा आस्तित्वरूप अर्थ है उसीमकार नास्तित्व नित्यत्व आनित्यत्व आदि धर्म भी उसके वाच्य हैं इसरीतिसे अभेदसंबंध वा अभेदोपचारसे जिन शब्दोंका प्रयोग किया गया है वे ही शब्द स्यात् शब्दसे द्योतन किये गये अने. कांत अर्थके वाचक हैं । यह यहाँपर 'स्यादस्त्येव जीवः' इस वाक्यको मुख्यकर कथन किया गया है। इमीप्रकार ‘स्यानित्य एव जीवः स्यादेक एव जीवः' इत्यादि वाक्यों में भी अर्थकी कल्पना कर लेनी | ही चाहिये। शंका
एक धर्मके द्वारा समस्तवस्तुके स्वरूपका ग्रहण करना सकलादेश है, यदि सकलादेशका यह लक्षण किया जायगा तो 'स्यादस्त्येव जीवः' इत्यादि जो सात वाक्य हैं उनसे स्यादस्त्येव जीवः' इसवाक्यके कहनेसे ही सकलादेश प्रमाण के द्वारा जीवमें रहनेवाले नास्तित्व आदि समस्त धोका ग्रहण हो जायगा फिर 'स्यान्नास्त्येव जीवः, स्यादवक्तव्य एव जीवः' इत्यादि उत्तरके छहों भंगोंका भी ग्रहण हो जानेपर उनका प्रतिपादन करना व्यर्थ है अर्थात् 'स्थादस्त्येव जीवः' यही एक भंग कहना चाहिये, सकलादेश प्रमाणसे जीवगत समस्त धर्मों का ज्ञान हो जायगा अवशिष्ट भंगों के कहनेकी कोई आवश्यता नहीं ? यह भी ठीक नहीं। क्योंकि गौण और मुख्यरूपसे विशेषरूप अर्थक प्रतिपादन करने के लिए समस्त भंगोंका प्रयोग करना ही आवश्यक है इसलिए समस्त भंगोंका प्रयोग अनर्थक नहीं सार्थक ही है। खुलासा तात्पर्य इसप्रकार है