Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
तरा माषा || पांचवां भंग भी सकलादेश है क्योंकि पहिले. भंगोंके समान यहांपर भी जीवमें जितने अंश-धर्म है।
उनकी अभेद विवक्षा मानकर अस्तित्वविशिष्ट अवक्तव्यत्व धर्मद्वारा ही जीवगत समस्त धर्मोंका संग्रह || है। छठे भमकी व्यवस्था इसप्रकार है--
छठे भंगका नाम 'स्यान्नास्तिचावक्तव्यश्च जीवः' अर्थात् जीव नहीं और अवक्तव्य है । इस भंगमें || भी तीन स्वरूपोंसे दो अंशोंका निर्माण है अर्थात् इस भंगमें एक तो नास्तित्वरूप अंश है वह एक स्वरूप | ॥ है और दूसग अवक्तव्यरूप अंश है एवं वह अस्तित्व नास्तित्वका मिला हुआ स्वरूप होनेके कारण
| दो स्वरूप है । यहाँपर यह शंका न करनी चाहिये कि अवक्तव्यत्वमें नास्तित धर्म विद्यमान है ही, फिर || भिन्नरूपसे नास्तित्वके कहनेकी क्या आवश्यकता है ? क्योंकि वस्तुमें रहनेवाला और अवक्तव्यत्व |8|| || धर्मके अंतरंगमें प्रविष्ट जो नास्तित्व धर्म है वह जब तक अपनेको भिन्नरूपसे न प्रकट करेगा अर्थात् || व भिन्नरूपसे उसका उल्लेख नहीं किया जायगा तब तक उसकी कल्पना नहीं हो सकती क्योंकि वस्तु की है। व्यवस्था इसीप्रकार मानी है। इसलिये अवक्तव्यत्व धर्मके अंतरंगमें प्रविष्ट रहनेपर भी नास्तित्व धर्मका | पृथक् रूपसे जो पंचम भंगमें उल्लेख किया गया है वह युक्त है । यहाँपर नास्तित्व धर्म पर्यायके आश्रय
है। वह पर्याय दो प्रकारको मानी एक युगपदवृत्त अर्थात जो एक साथ द्रव्यमें रहै इसीका दूसरा # नाम सहवृत्त भी है और दूसरी क्रमवृत्त अर्थात् यह द्रव्यमें क्रमसे रहनेवाली है। यहाँपर यह न समझ ॥ लेना चाहिये कि अनेक पर्याय एक द्रव्यमें किस तरह रह सकती हैं। क्योंकि जिन पर्यायोंका एक साथ | जा रहना माना गया ई आपसमें उनका अधिरोध है-एक दूसरी पर्यायसे विरोध नहीं रखती इसलिये |
अविरोध रूपसे उनका रहना बाधित नहीं । गति इंद्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान और संयम आदि
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