Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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उससे बाध होनेपर उस प्रतीतिका मिथ्यापना सिद्ध होगा और उस मिथ्यापनकी सिद्धिसे अस्तित्व नास्तित्वका आपसमें विरोध सिद्ध होगा इस रीतिसे एक वस्तुमें अस्तित्व नास्तित्वका एक साथ रहना
अवाधित है । विरोध दोष-बध्यघातका सद्दानवस्थान और प्रतिवध्यप्रतिवन्धक भावके भेदसे तीन हूँ प्रकारका है उसका खुलासा ऊपर ग्रन्थों ही कर दिया गया है। तथा
ऊपर जो यह कहा गया है कि-शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श जिसप्रकार आपसमें विरोधी होनेसे एक साथ नहीं रह सकते उसीप्रकार अस्तित्व नास्तित्व भी आपसमें विरोधी धर्म हैं इसलिये वे भी एक वस्तुमें नहीं रह सकते ? वह भी ठीक नहीं क्योंकि एक ही घूप खेने के घडेमें मध्यभागमें उष्णता और किनारे पर शीतता दीख पडती है इसलिये अवच्छेदक भदेसे शीत और उष्णका एक जगह रहना सुनिश्चित होनेसे उनमें भी विरोध की सम्भावना नहीं हो सकती तथा और भी यह बात है कि- जिसप्रकार एक ही वृक्ष आदिमें चलपना और अचलपना दीख पडता है, एक ही घट आदिमें 6 लालपना और कालापना दीख पडता एवं एक ही शरीर आदिमें कुछ ढकापन और कुछ उघडापन दीख पडता है कोई विरोध नहीं उसीप्रकार एक ही वस्तुमें अस्तित्व नास्तित्वका सद्भाव रह सकता है कोई विरोध नहीं। सार अर्थ यह है कि-चलना और न चलना दोनों विरोधीधर्म हैं तथा शाखावच्छेदेन है वृक्ष चलता दीख पडता है और स्कंधावच्छेदेन अर्थात मूलकी और अचल रहता है इसलिये एक ही वृक्षमें अवच्छेदकके मेदसे जिसप्रकार चलना और न चलना अविरोधरूपसे रहते हैं। तथा एक ही घट एक जगह लाल दीख पडता है और दूसरी जगह काला दीख पडता है इसलिये एक ही घटमें अवच्छेदक-स्थान भेदसे जिसप्रकार लालपना और कालापना दीख पडता है तथा एक ही शरीर एक
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