Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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च०रा०६|| अस्तित्व गुण नहीं रह सकता इसरीतिसे अनेकांतवादमें विरोध दोष होता है तथा अस्तित्वका अधिः भाषा करण भिन्न होता है और नास्तित्वका अधिकरण भिन्न रहता है एक अधिकरण उन दोनोंका हो ही नहीं १२१७ | सकता परंतु अनेकांतवादमें उन दोनोंका अधिकरण एक माना है इसलिये यहांपर वैयाधिकरण्य दोष
| भी है । वैयधिकरण्यका लक्षण 'विभिन्नाधिकरणवृचित्' अर्थात् भिन्न भिन्न अधिकरणमें रहना है । तथा इस अनेकांतवादमें अनवस्था दोषकी भी संभावना है। उसका लक्षण-"अप्रामाणिकपदार्थपरंपरापरि| कल्पनाविश्रांत्यभावश्चानवस्था" अर्थात् अप्रमाणीक अनंते पदार्थों की कल्पना करते चले जाना, कहीं
मी विश्राम न लेना अनवस्था है। ऊपर जिसरूपसे आस्तित्व और जिसरूपसे नास्तित्व कहा गया है उन | रूपोंको भी अस्तित्व नास्तित्व स्वरूप कहना चाहिये वह अस्तित्व नास्तित्व स्वरूप पररूपकी अपेक्षा कहा जायगा । उस स्वरूप पररूपको भी अस्तित्व नास्तित्व स्वरूप मानना चाहिये वह भी स्वरूप पररूपकी अपेक्षा माना जायगा। उसे भी फिर अस्तित्व नास्तित्व स्वरूप कहना चाहिये वह भी स्वरूप पररूपकी | अपेक्षा होगा इसप्रकार अनंती कल्पना करते चले जाओ कहीं भी विश्राम नहीं हो सकता इस रीतिसे यह अनेकांतवाद अनवस्थादोषपरिपूर्ण है । तथा इस अनेकांतवादमें संकर दोषकी भी संभावना है। इसका लक्षण 'सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः संकरः' अर्थात् सब धाँकी एक साथ प्राप्ति होना संकर दोष कहा जाता है । ऊपर जो आस्तत्व नास्तित्व कहे गये हैं उनसे जिप्तरूपसे अस्तित्व कहा गया है उस रूपसे नास्तित्व भी कहा जा सकता है तथा जिस रूपसे नास्तित्व कहा गया है उस रूपसे अस्तित्व भी कहा जाता है इसप्रकार अस्तित्व नास्तित्त्रकी एक वस्तुमें एक साथ प्राप्तिकी संभावना होनेके कारण अनेकांतवाद संकर दोषका भी स्थान है, तथा अनेकांतवादमें व्यतिकर दोषकी भी संभावना
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