Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 1229
________________ तरा० भाषा अध्याय १२.३ A-UAEREGACASSURESH घटः' यहाँपर अस्तित्व पदके उल्लेखसे केवल अस्तित्वका ही ज्ञान होना विकलादेश है । शंका जो पदार्थ अभिन्न है अर्थात् जिसका कोई विभाग नहीं उसका भेद करनेवाला गुण कैसे हो सकता| है ? उत्तर-अभिन्न पदार्थका भी भेद गुणके द्वारा दीख पडता है इसका शास्त्रनिर्दिष्ट प्रसिद्ध उदाहरण इस प्रकार है-'पठन् भवान् पटुरासीत् पटुतर एष में पढते हुए आप चतुर थे परंतु मेरा यह शिष्य अधिक चतुर था। यह इस उदाहरणका अक्षरार्थ है । यहाँपर जिसको लक्ष्यकर भवान (आप) और एष (यह) शब्दका प्रयोग किया गया है उस व्यक्तिसे 'पटु' (चतुराई ) गुण कुछ पृथक् नहीं है तो भी भेद बतलाया गया है और इसीलिये 'भेद करने' अर्थमें होनेवाला 'तर' प्रत्यय पटु शब्दसे व्याकरण शास्त्रा. | नुसार हुआ है । इस रीतिसे जिसप्रकार यहां अभिन्न व्यक्तिमें भी गुणके द्वारा भेद बतलाया गया है उसी प्रकार एक भी अखंडद्रव्य गुणों के भेदसे भिन्नरूप हो सकता है कोई दोष नहीं क्योंकि गुणों से भिन्न कोई ॥ द्रव्य पदार्थ नहीं और जिस जिस रूपसे गुणोंका भेद है उस उस रूपसे गुणियोंका भेद भी सुनिश्चित है। हाथ नहीं और जिस CALGHANALESASARASAIजवाला तत्रापि तथा सप्तमगा - पद्य वा क्रमयोगपत विकला जो अंश-गुण, गुणीका भेद करनेवाले हैं उनमें क्रम, योगपद्य वा क्रमयोगपद्यसे विवक्षा रहनेपर। विकलादेश होते हैं तथा जिसप्रकार तकलादेशमें सप्तभंगीका विधान कह आये हैं उसीप्रकार विकला|| देशमें भी सप्तभंगीका विधान समझ लेना चाहिए । इस विकलादेशकी सातों भंगोमेसे प्रथम भंग और द्वितीय भेगमें जुदे जुदे रूपसे क्रमका विधान है अर्थात् ‘स्यादस्त्येवात्मा' यहॉपर नास्तित्वसे जुदा अस्तित्वके क्रमका विधान है एवं 'स्यानास्त्येवात्मा' यहांपर अस्तित्वसे जुदा नास्तित्वके क्रमका १ अभेदवृत्यमेदोपचारयोरनाश्रयणे एकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यं विकलादेशः। सप्तभंगीतरंगिणी पृष्ठसंख्या २०॥ -

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