Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
व०रा० भाषा
15 है। उसका लक्षण 'परस्परविषयगमनं व्यात करः' अर्थात् परस्पर विषयके गपनको व्यतिकर
कहते हैं। ऊपर जिस रूपसे सत्व कह आये हैं उस रूपसे असत्त्व ही होता है सत्त्व नहीं एवं जिप्तरूपसे | १२१८
असत्त्व कह आये हैं उस रूपसे मत्त्व ही होता है असत्त्व नहीं इसप्रकारके सत्तके विषयको असल 13 कहनेसे और असत्वके विषयको सत्व कहनेसे अनेकांतवाद व्यतिकर दोषों का भी स्थान है। तया सत्त्व-15 स्वरूप वस्तु सत्त्वस्वरूप ही है एवं असत्त्वरूप वस्तु असत्त स्वरूप ही है इसप्रकार निश्चय रूपसे न कह सकनेके कारण अनेकांतवाद संशयका भी स्थान है तथा जब संशय स्थान अनेकांतवाद होगा तब उसमें निश्चय रूपसे किसी पदार्थकी प्रतिपत्ति भी नहीं होगी इसलिये अनेकांतवादमें अपतिपति दोष भी होगा तथा प्रतिपत्ति न होनेसे अस्तित्व नास्तित्व स्वरूप वस्तुका अभाव ही हो जायगा। इसप्रकार विरोध १ वैयधिकरण २ अनवस्था । संकर ४ व्यतिकर ५ संशय ६ अप्रतिपति ७ और अभाव ८ ये आठ दोष अनेकांतवादमें हैं। सबका समाधान इप्सप्रकार है
किसी अपेक्षासे प्रतीयमान वस्तमें स्वरूपादिचतष्टयकी अपेक्षा सत्व और पररूप आदि चतुष्टयकी अपेक्षा असत्त्वकी प्रतीति होती है इसलिये उन दोनों में विरोध नहीं हो सकता क्योंकि एककी मौजूदगी | में दूसरेका न रहना विरोध कहा जाता है। स्वरूप आदिकी अपेक्षा जिससमय वस्तु में अस्तित्व रहता या है उससमय पररूपादिकी अपेक्षा होनेवाले नास्तित्वका तो उसमें अभाव है ही नहीं किंतु स्वरूप आदिको || अपेक्षा जिसप्रकार वस्तुमें अस्तित्वको निर्बाध रूपसे प्रतीति होती है उसीतरह पररूप आदिकी अपेक्षा नास्तित्वकी प्रतीति भी उसमें निर्वाध है तथा यह भी बात है-यदि वस्तु का स्वरूप भाव-सत्तामात्र ही हो तब नास्तित्वकी प्रतीति न हो सके अथवा अभाव-असचामात्र ही स्वरूप हो तब अस्तित्व की प्रतीति
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