Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 1231
________________ मध्याय व०रा० भाषा ADKIBHABHOSAREERSORRUAR 'स्थादस्त्येव जीवः' इत्यादि भंगोंमें सामान्य रूपसे विशेषण विशेष्य भावसम्बन्धके बतलाने के लिये एवकारका प्रयोग किया गया है वह अवधारणात्मक है. जिस धर्मके अंतमें एवकारका प्रयोग होगा धर्मीमें उसीकी सत्ता समझी जायगी, अन्य धर्मोंका निषेध माना जायगा। स्यादस्त्येवात्मा यहापर अस्तित्व धर्मके अंतमें एवकार है और यहांपर अस्तित्व विशेषण एवं आत्मा विशेष्य हे यह वह द्योतन करता है इसलिये यहाँपर अस्तित्वका ही आश्रय आत्मा हो सकता है और धर्मोंका उसमें निषेध कहना होगा ? सो ठीक नहीं, ऐसा ही दोष सकलादेशके अंदर भी उपस्थित था उसके दूर करनेके लिये वहांपर | 'स्यात' शब्दका प्रयोग किया गया था उसीप्रकार यहांपर भी उस दोष दूर करने के लिए स्यात शब्द | का प्रयोग है इसलिये इस विकलादेशमें भी 'स्थादस्त्येव जीवः' इत्यादि रूपसे ही भंगोंका स्वरूप समझ लेना चाहिये । 'स्यात्' शब्दका अर्थ इसप्रकार है- पवकारके प्रयोग करनेपर जिसधर्मके अंतमें एवकारका प्रयोग किया गया है उसे छोडकर शेष ||2|| | धर्मोंका अभाव सिद्ध होगा इसलिये इतर धर्मों के अभावसे वस्तुके स्वरूपके अभाव होनेपर उसके समस्त || स्वस्वरूपका नाश न हो इसलिये स्यात् शब्द वस्तुमें जो धर्मस्वरूप जिस स्वरूपसे निश्चित है उसी रूपसे उसे बतलाता है। जैसा कि वचन भी है-स्थाच्छब्दे विवक्षितार्थवागंगमिति । अर्थात् जिस अर्थकी ||७|| 5 विवक्षा की गई है इस अर्थका वाचक जो वचन है वह वस्तुका अंग है अर्थात् जिसधर्मका प्रधानरूपसे | | उल्लेख किया गया है वह धर्म तो उस वस्तुमें है ही परन्तु शेष धर्म भी उसके अन्दर मौजूद हैं, उनका || अभाव नहीं, यह बात स्यात् शब्द बतलाता है। इसप्रकार सकलादेश और विकलादेश दोनों स्थलोंपर विवक्षाके वशसे 'स्थादस्त्येवात्मा' इत्यादि ASKATRECASTHAKARSARIBABASABREAA १२०५

Loading...

Page Navigation
1 ... 1229 1230 1231 1232 1233 1234 1235 1236 1237 1238 1239 1240 1241 1242 1243 1244 1245 1246 1247 1248 1249 1250 1251 1252 1253 1254 1255 1256 1257 1258 1259