Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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कथंचित् आत्मा अस्तित्व नास्तित्व दोनों स्वरूप है यह चतुर्थ भंग है । यह भंग भी स्यादस्ति आदि अध्याय : भंगोंके समान सकलादेश है क्योंकि स्यादस्ति आदि भंगोंमें अस्तित्व आदि किसी एक धर्मके बोधनमे / ४ जिस प्रकार अनंत धर्मात्मक समस्त वस्तुका ज्ञान होता है इसलिए उन्हें सकलादेश माना गया है उसी / प्रकार यहांपर भी क्रमसे विवक्षित अस्तित्व नास्तित्व धर्मों के द्वारा अनंतधर्मात्मक समस्त वस्तुका ज्ञान है हो जाता है इसलिए 'स्यादस्तिनास्ति चात्मा' यह भंग भी सकलादेश है । तथा जिस प्रकार अस्ति, है नास्तिको स्यादम्ति, स्यान्नास्ति कह आए उसीप्रकार चतुर्थभंगको भी स्यादस्तिनास्ति मानना चाहिये। यदि सर्वथा अस्तित्व नास्तित्वस्वरूप इस मंगको माना जायगा तो आपप्समें एक दूसरेका विरोध होगा। अर्थात् दोनोंके समान होनेसे जहांपर अस्तित्व रहेगा वहांपर नास्तित्व नहीं रह सकता और जहांपर नास्तित्व रहेगा वहांपर अस्तित्व नहीं रह सकता तथा समानशक्तिक होनेसे जब ये दोनों पदार्थ वस्तु न रह सकेंगे तो प्रत्यक्ष विरोध होगा तथा अस्तित्व नास्तित्व के अभावमें और भी गुण पदार्थमें न हो सकेंगे इसलिए उसे निर्गुणताका भी प्रसंग होगा इमलिए स्यादवक्तव्य आदि भंगोंके समान चतुर्थ भंगको भी 'स्यादस्तिनास्ति' मानना चाहिये । इस प्रकार यहांतक चार भंगोंका निरूपण कर दिया गया। इन भंगोंका निरूपण कैसे होता है वार्तिककार इसका स्पष्टीकरण करते हैं
उक्त भंगोंका निरूपण सर्वसामान्य, तदभाव १ विशिष्टसामान्य, तदभाव २ विशिष्टसामान्य, तद. भावसामान्य : विशिष्टसामान्य, तदिशेष सामान्य, विशिष्टसामान्य ५ द्रव्यसामान्य, गुणसामान्य ६ धर्मसमुदाय तव्यतिरेक धर्मसामान्यसंबंध तदभाव तथा धर्मविशेषसंबंध तदभाव ९ के द्वारा है। खुलासा इसप्रकार है- .
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