Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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| रूपकी विवक्षा माननेपर भी स्यादस्ति आदि भंग होते हैं। जहाँपर 'द्रव्यत्वरूपसे आत्मा है' यह कहना |है वहाँपर अविशेषरूपसे द्रव्यसामान्य-द्रव्यत्वकी विवक्षा होनेसे उसकी अपेक्षा 'स्पादस्त्येवात्मा' यह , अध्याय [ प्रथम भंग है । जहाँपर द्रव्यसामान्यके विरोधी विशेषरूपसे गुणत्वकी विवक्षा हो वहाँपर 'स्यानास्त्येवात्मा' यह दूसरा भंग होगा क्योंकि गुणत्वकी अपेक्षा गुण पदार्थ ही सिद्ध हो सकता है आत्मा नहीं। | तथा जहाँपर द्रव्यत्वरूपसे आत्माकी सत्ता और गुणत्वरूपसे आत्माकी असचाकी युगपत् विवक्षा होगी | वहांपर स्पादवक्तव्य यह तीसरा भंग होगा एवं जिस समय द्रव्यत्वकी अपेक्षा आत्माकी सचा और 3 | गुणत्वकी अपेक्षा आत्माकी असचाकी क्रमसे विवक्षा होगी वहांपर 'स्यादस्ति नास्ति चात्मा' यह चतुर्थ है | भंग होगा ॥६॥ तथा
धर्मसमुदाय और तद्व्यतिरेकमें जहां जिसका जैसा श्रवण होगा उसकी अपेक्षा भी स्यादस्ति आदि भंग हैं। जिसतरह भूत भविष्यत् और वर्तमान काल सम्बन्धी अनेक शक्तियां और ज्ञान आदि धर्मोंके समुदायस्वरूपसे आत्मा है इसप्रकार धर्मसमुदायकी अपेक्षा 'स्यादस्त्येवात्मा' यह प्रथम भंग है। | ज्ञान आदि धर्मके विना आत्माकी उपलब्धि नहीं हो सकती इसलिये तद्व्यतिरेककी अपेक्षा 'स्यान्ना-६ |स्त्येवात्मा' यह दुसरा भंग है। जिससमय धर्मसमुदायकी अपेक्षा आत्माकी सचा और तद्व्यतिरेककी
अपेक्षा आत्माकी असचाकी एकसाथ विवक्षा की जायगी उससमय स्यादवक्तव्य यह तीसरा भंग होगा। | एवं दोनोंकी क्रमसे विवक्षा की जायगी उससमयस्यादस्तिनास्तिवात्मा यह चतुर्थ मंगसिद्ध होगा। तथा
धर्मसामान्य संबंध और तदभावमें जहां जैसा श्रवण होगा उसकी अपेक्षा भी स्यादखि आदिक मंग है जिसतरह गुणगत सामान्य रूपसे सम्बन्धकी विवक्षा रहनेपर किसी एक धर्मके आश्रयकी
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