Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
REMIKARREARRESTERIES
यदि उपर्युक्त जीवरूप पदार्थ, जीवज्ञान और जीवशब्दका अभाव माना जायगा अर्थात् सिवाय , विज्ञानके कोई भी पदार्थ न माना जायगा तो संसारमें एक पदार्थ वाच्य है और दूसरा वाचक है यह है जो वाच्यवाचकसंबंध रूढिसे प्राप्त है उसका अभाव हो जायगा क्योंकि विज्ञानमात्र पदार्थके मानने में
कोई भी अन्य पदार्थ सिद्ध न होनेके कारण वाच्यवाचक संबंधका संभव नहीं हो सकता इसरीतिसे लोकविरोध होगा तथा जीवपदार्थके न माने जानेपर किसी पदार्थकी परीक्षा करनेके लिये जो प्रयत्न किया जाता है वह भी निष्फल जायगा क्योंकि जीवपदार्थके आधीन ही परीक्षाका प्रयत्न है, जब जीवपदार्थ ही नहीं सिद्ध होगा तब परीक्षाका प्रयत्न भी निष्फल ही है। इसलिये जीवकी सर्वथा नास्ति न मानकर 'जीवः स्यादस्ति स्यानास्ति' अर्थात् कथंचित् जीव है कथंचित् जीव नहीं है, ये स्यादस्ति
और स्यान्नास्ति ये दोनों भंग द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा हैं क्योंकि द्रव्यार्थिककाव्यापार पर्यायार्थिकको अंतःप्रविष्ट कर होता है और पर्यायार्थिकका व्यापार द्रव्यार्थिकको अंत:प्रविष्ट कर 6 होता है एवं ये दोनों नय सकलादेशस्वरूप हैं । यहाँपर प्रथम द्वितीय दोनों भंगोंमें एक कालमें समस्त । पदार्थका एक गुण रूपसे कथन है तथा तीसरा भंग अवक्तव्य है क्योंकि वहांपर दो गुणोंसे अभिन्न एक ही द्रव्यको अभेदरूपसे एकसाथ कहनेकी इच्छा है। खुलासा इसप्रकार है
पहली और दूसरी भंगोंमें एक कालमें एक शब्दसे एक समस्त पदार्थका एक गुण मुखसे प्रतिपादन है क्रमसे है एवं जिससमय जब धारणस्वरूपका प्रतियोगी गुणोंके द्वारा एक साथ एक कालमें अमेदरूपसे P एक समस्त पदार्थकी कहनेकी इच्छा हो वहांपर अवक्तव्य नामका तीसरा भंग है क्योंकि अस्तित्व नास्ति
व स्वरूप दोनों गुणोंका कहनेवाला कोई एक शब्द नहीं है, यहाँपर युगपद्भावका अर्थ काल आदिके
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