Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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है अनंत कालके संबंधसे जायमान और वर्तमान कालके संबंधसे जायमान तथा जिनका भेद अर्थपर्याय
और व्यंजनपर्यायके भेदसे दो प्रकारका माना गया है ऐसी अनंत पर्यायोंके संबंधसे अनंत स्वरूप है है इसरीतिसे सहकारिकारण पर्यायोंकी अपेक्षा एक भी पदार्थ अनेक वा अनंत स्वरूप हो सकता है कोई है 8 दोष नहीं। और भी यह बात है
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वात् ॥ १२॥ ___ अनंत काल वा एककालमें उत्पाद आदि अनंत हैं। जिस तरह द्रव्यकी अपेक्षा घट एक कालमें 4 हूँ पृथिवी रूपसे उत्पन्न होता है जलरूपसे नहीं । देश (क्षेत्र) की अपेक्षा इस देशमें उत्पन्न होता है पाट:
लिपुत्र पटनाके प्रदेशमें नहीं । कालकी अपेक्षा वर्तमानकालमें उत्पन्न होता है भूत और भविष्यत् कालमें हूँ है नहीं। भावकी अपेक्षा महान रूपसे उत्पन्न होता है अल्परूपसे नहीं। ये जो द्रव्य क्षेत्र आदिकी अपेक्षा हैं
उत्पाद कहे गये हैं उनमें प्रत्येक उत्पादका अन्य उत्पादोंसे भेद है जैसे समानजातीय एक घटकी में
मिट्टीसे भिन्न मिट्टीसे बने अन्य अनेक घटोंके उत्पादोंसे तथा मिट्टीकी अपेक्षा किंचित् विजातीय ४ सुवर्णमयी अन्य अनेक घटोंके उत्पादोंमे तथा अत्यंत विजातीय पट आदि अनंत मूर्तिक अमूर्तिक
दूसरे दूसरे द्रव्योंमें प्राप्त उत्पादोंसे भेद किया जाय तो उस उत्पादके उतने ही अर्थात् अनंत भेद होजाते हैं
भावार्थ-सजातीय घट जितने होंगे और द्रव्य आदिकी अपेक्षा जितने उनके उत्पाद होंगे सव लिये जायगे है इसीप्रकार कुछ विजातीय सोने आदिके घट और मर्वथाविजातीय पट आदि पदार्थों के उत्पादों की भी अवस्था
१-प्रदेशवत्व गुणके सिवाय अन्य समस्त गुणों के विकारको अर्थपर्याय कहते हैं। प्रदेशवत्व गुणके विकारको व्यंजन पर्याय कहते हैं।
SELFISTERESCORRISHTRAGINISTRIORS-SERSKARAN