Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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. . जब यह नियम है कि.जहाँपर धर्मीका ज्ञान होगा वहां धर्मविशिष्ट धर्मीहीका ज्ञान होगा और जहां है
अध्याय पर धर्मका ज्ञान होगा वहाँपर धर्मीविशिष्ट ही धर्मका ज्ञान होगा किंतु केवल धर्मी और केवल धर्मका तो ज्ञान होगा नहीं फिर द्रव्य और भाव अर्थात् धर्मको जो भिन्न भिन्न माना जाता है अब उनका विभाग न हो सकेगा। सो ठीक नहीं जहाँपर मुख्यरूपसे द्रव्यको कहनेवाला शब्द होगा वहां द्रव्य शब्द कहा 8 जायगा जिसतरह जीव शब्द, क्योंकि जीव शब्द जीव रूप द्रव्यको मुख्य रूपसे कहता है और जीवत्व रूप धर्मको गौणरूपसे कहता है तथा जहांपर मुख्यरूपसे धर्मका कहनेवालाशब्द हो वह भाव शब्द है जिम तरह अस्ति आदि शब्द, क्योंकि अस्तिशब्द अस्तित्वरूप धर्मको मुख्यरूपसे कहता है और अस्तित्व के आधार धर्मीको गौणरूपसे कहता है। इस रीतिसे मुख्य और गौण अपेक्षा द्रव्य और भावका विभाग असंभव नहीं।
कोई कोई महानुभाव पाचकोऽयं' यह पुरुष रसोइया है, इसे द्रव्यवाचक शब्द कहते हैं और 'पाचकत्वमस्य' इसका पाचकपना,इसे भाववाचक शब्द मानते हैं, इसतिसे द्रव्य और भावकी भिन्नता कहते हैं परंतु वह ठीक नहीं । जहाँपर पाचक शब्दका प्रयोग है वहांपर पाचकत्वविशिष्ट ही पाचक पुरुषका ग्रहण है तथा जहां पर पाचकत्व शब्दका उल्लेख है वहांपर भी पाचकत्वके आधार विशिष्ट अर्थात् है पाचकसहित ही पाचकत्वका ग्रहण है इसतिसे जब यह नियम है कि जहांपर पाचक शब्दका प्रयोग है होगा वहां पाचकत्वविशिष्ट ही पाचक शब्दका प्रयोग होगा तथा जहांपर पाचकत्वका प्रयोग होगा वहां पर पाचकविशिष्ट ही पाचकत्वका प्रयोग होगा तब केवल पाचक शब्दका द्रव्य शब्द और केवल पाचकत्वको भाव शब्द मानकर द्रव्य और भावका विभाग मानना व्यर्थ है।
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