Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
• सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेंद्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलांतवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रशतारसह
सारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयंत- जयंताऽपराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥१६॥ सौधर्म और ऐशान, सानाकुमार और माहेद्र, ब्रह्म और ब्रह्मोचर, लांतव और कापिष्ठ, शुक्र और महाशुक्र, शतार और सहस्रार, आनत और प्राणत, आरण और अच्युत, इन सोलह स्वर्गों में तथा नव । अवेयकोंके नव पटलॉमें, नव अनुदिशके एक पटलके विमानोंमें तथा विजय वैजयंत जयंत अपराजित
और सर्वार्थसिद्धि विमानोंमें कल्पोपपन्न और कल्पातीत संज्ञाओंके धारक वैमानिक देवोंका निवासस्थान हैं। सौधर्म आदिकी कल्पसंज्ञा क्यों है ? वार्तिककार इस विषयका स्पष्टीकरण करते हैं
चातुरथिकेनाणा खभावतो वा कल्पाभिधानं ॥१॥ व्याकरणके तद्धित प्रकरणमें एक चौतुरर्थिक प्रकरण है उसमें अण् आदि प्रत्ययोंका विधान है। सौधर्म आदिकी कल्पसंज्ञा या तो चातुर्थिक अण् प्रत्ययसे कर लेनी चाहिये या कल्पोंके सौधर्म आदि स्वाभाविक नाम है यह समझ लेना चाहिये । इंद्रोंका सौधर्म आदि नाम कैसे पडा ? उत्तर
स्वभावतः साहचर्यादिंद्राभिधानं ॥२॥ स्वभावसे ही वा सौधर्म आदि स्वर्गों के साहचर्यसे इंद्रोंके सौधर्म आदि नाम हैं। विस्तार इस प्रकार है
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१। देखो शन्दार्णवचंद्रिका पृष्ठ ९० अथवा तीसरे अध्यायके दूसरे पादके ८६वें सूत्रसे आगे ।