Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याव
लोकांतिक देवोंकी उत्कृष्ट और जघन्य दोनों प्रकारकी स्थिति आठ सागरप्रमाण ही है। ये समस्त ॐ लोकांतिक देव शुक्ललेश्यावाले और पांच हाथप्रमाण ऊंचे शरीरके धारक है। '
व्याख्यातो जीवः ॥ २॥ सम्यग्दर्शनके विषयप्रदर्शनकेलिये कहे गये जीव आदि पदार्थोंमें सबसे पहिले निर्दिष्ट जीव पदार्थका व्याख्यान कर दिया गया।
सच एकोऽनेकात्मकः ॥ ३॥ जिस जीवका वर्णन किया गया है वह जीव एकस्वरूप अनेकस्वरूप दोनों प्रकार है । शंकाजो पदार्थ एक होगा वह एकही स्वरूप होगा, अनेक स्वरूप कैसे हो सकता है ? उत्तर
अभावविलक्षणत्वात ॥४॥ ___ जो पदार्थ नहीं है उसका अभाव है वह अभाव एकस्वरूप है क्योंकि अभावस्वरूपसे अभावका भेद नहीं, अभाव स्वरूपसे वह एक ही है । उस अभावसे भिन्न भाव है और वह अनेक स्वरूप है । यदि अभावसे भावको विलक्षण न माना जायगा तो वे दोनों एक ही होंगे, दोनोंमें भेद न होसकेगा।
स तु षोढा भिद्यते-जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धते अपक्षयते विनश्यतीति ॥५॥ वह भाव जायते आदि क्रियाओंके संबंधसे छह प्रकारका है। वाह्य और अंतरंग कारणों के दारा जो पदार्थ अपने स्वरूपको प्राप्त हो अर्थात् उत्पन्न हो वह 'जायते' क्रियापदका विषय है जिसतरह मनुष्य गति नाम कर्मके उदयसे आत्मा मनुष्य आदि कहा जाता है। आयु आदि कारणों से किसी भी ' पर्यायमें ठहरना अस्तित्व कहा जाता है। जो पदार्थ जिसरूपसे विद्यमान है उसका समूल नाश न
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