Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
--
॥अध्यार
18 होकर उसीमें पर्यायोंका पलटना विपरिणाम कहा जाता है। पहिले स्वभावका नाश तो हो नहीं किंतु
| किसी स्वरूपांतरसे उसकी बढवारी हो जाय उसका नाम वृद्धि है। पूर्व भावका क्रमसे एक देशका नष्ट || हो जाना अपक्षय है। सामान्य रूपसे उस पर्यायका सर्वथा नष्ट हो जाना विनाश कहा जाता है। इस
प्रकार प्रवृत्तियोंके भेदसे क्षण क्षणमें बदलते रहनेसे पदार्थ अनंतरूप धारण करते हैं इसरूपसे प्रवृत्तिके || भेदसे एक पदार्थ अनेक स्वरूप युक्तिसिद्ध है । अथवा आत्मा पदार्थ सत्स्वरूप है, ज्ञानका विषय होनेसे All ज्ञेय, द्रव्य, रूपादिसे रहित होने के कारण अमूर्तिक, अत्यंतसूक्ष्म, अवगाहयुक्त, असंख्यातप्रदेशी, | ॐ अनादिनिधन और चेतन है इसलिये सत्व ज्ञेयत्व द्रव्यंत अमूर्तत्व अतिसूक्ष्मत्व अवगाहनत असंख्येय | || प्रदेशत्व अनादिनिधनत और चेतनत्वादि धौके भेदसे वह अनेक धर्मस्वरूप है । इसप्रकार एक भी || पदार्थ पर्यायोंके भेदसे अनेक धर्मस्वरूप है । और भी यह बात है
अनेकवाग्विज्ञानविषयत्वात् ॥६॥ लोकमें एक अर्थ भी अनेक शब्दवाच्य दीख पडता है अर्थात् अर्थ एक ही होता है किंतु उसके कहनेवाले शब्द बहुतसे होते हैं क्योंकि एक ही पदार्थ अनेक वाच्यरूप परिणाम को धारण करता | Pा है इसीलिये उस अर्थको प्रतिपादन करनेकेलिये अनेक शब्दों का प्रयोग दीख पडता है यहॉपर प्रयोगका ॥ अर्थ प्रतिपादन करनेकी क्रिया है । उस क्रियाके साधक शब्द और अर्थ दोनों हैं । उनमें शब्द व्यंजक || रूपसे उस क्रियाका प्रतिपादक है और अर्थ व्यंग्यरूपसे उस क्रियाका प्रतिपादक है । अर्थात शब्द ||
अर्थका वाचक है और अर्थ वाच्य है अर्थात् शब्दके द्वारा पदार्थ कहा जाता है इसलिये शब्द उस पदा- हार्थका प्रगट करनेवाला होनेसे व्यंजक कहा जाता है और पदार्थ उस शब्द द्वारा प्रगट होता है इसलिये
GORONSTABHASHOKASARIES
१९९५