Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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, तेभ्यस्तैर्वाऽधिका इति तसिः॥९॥ उत्तरोत्तर देवः स्थिति आदिसे अधिक है यह अर्थ पंचमी विभक्तिके अर्थमें तसि प्रत्यय करनेपर | भी होता है और तृतीया विभक्तिके अर्थमें तसि प्रत्यय करनेपर भी होता है ।जहाँपर पंचमी विभक्ति के बाद अर्थमें तसि प्रत्यय किया जायगा उस समय तो अपादानेऽहीयरुहो। ४।२।६२ । अर्थात हीय और
रुह धातुको छोडकर अन्य धातु संबंधी अपादान अर्थमें जो पंचमी विभक्ति हो तो उस पंचम्यंत पदसे । तसि प्रत्यय होता है, इससूत्रसे तसि प्रत्ययका विधान मान 'विषयतः' यह सिद्ध हुआ है तथा जहांपर तृतीया अर्थमें तसि प्रत्यय किया जायगा उस समय विषय शब्दका आद्यादि गणमें पाठ मानकर 'आदयादिभ्य उपसंख्यानं' इस सूत्रसे तसि प्रत्यय कर 'विषयतः' यह सिद्ध हुआ है। . ____ 'उपर्युपरि' और 'वैमानिकाः' इन दो शब्दोंकी इस सूत्रमें अनुवृत्ति है इसलिये ऊपर ऊपरके वैमानिक देव हर एक कलामें और हर एक पटलमें स्थिति आदिसे अधिक हैं यह इस सूत्रका निष्कर्ष अर्थ है। स्थिति उत्कृष्ट और जघन्यके मेइसे दो प्रकारको है । दोनों ही प्रकारकी स्थितिका वर्णन आगे किया। जायगा । यहाँपर इससूत्रमें जो स्थिति शब्दका उल्लेख किया गया है उसका अभिप्राय यह है कि जिनकी स्थिति समान है उनमें भले ही स्थितिकी अधिकता न हो परंतु गुणोंकी अधिकता है । निग्रह | अनुग्रह विक्रिया पराभियोग अर्थात् अपकारकी इच्छासे दूसरेको दवाना आदि कार्यों में जो प्रभाव
१-हीयाहवर्जितस्य धोः सम्बधिन्यपादाने या का विडिता तदंतात्तसिर्वा भवति । ग्रामादागच्छति ग्रामतः । उपाध्यायादधीते, उपाध्यायतोऽधीते । ग्रहीयरुहोरिति किं ? सार्थाद्धीनः पर्वतादवरोहति । शब्दार्णवचंद्रिका पृष्ठ १३८ । २ शब्दार्णवचंद्रिकामें इस सूत्रको जगह 'माद्यादिभ्यस्तसिः' ४।२।६०। यह सूत्र है। ३ प्राचीन भाषामें "परामियोग्य कहिये उत्कृष्ट धर्म कार्य आदिके विषे" यह अर्थ किया गया है।
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