Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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জমা
है है इस सूत्रमें अधिक शब्दकी अनुवृत्ति आती है और उसका एकैक शब्द के साथ संबंध कर एक एक
सागर आधिक है यह यहाँपर अर्थ है । शंका-'नवसु प्रैय केषु विजादिषु' इसरूप से जुदा जुदा उल्लेख क्यों किया गया 'नवग्रैवेयकविजयादिषु' ऐसा समासांत एक पद ही मानना चाहिये था। ऐसे माननेमें अक्षरोंका लाघव भी होता ? उत्तर
अवेयकेभ्यो विजयादीनां पृथग्गृहणमनुर्दिशसंग्रहार्थं ॥२॥ ___अवेयकोंसे विजय आदि विमानोंका जो पृथक्रूपसे ग्रहण किया गया है वह नौ अनुदिश विमा
नोंके संग्रहकेलिये है यदि 'रेयकविजयादिषु' ऐसा कहा जाता तो नव अनुदिश विमानोंका ग्रहण हूँ है नहीं होता इसलिये अवेयकोंसे विजय आदिका पृथग् ग्रहण सार्थक है, निरर्थक नहीं । तथा
- प्रत्येकमेकैकवृद्ध्यभिसंबंधार्थ नवगृहणं ॥३॥ यदि सूत्रों नवशब्द न कह कर केवल गैरेयक शब्द ही कहा जाता तो जिसप्रकार विजय आदि 8 सब विमानों में एक ही सागर आधिक स्थिति कही गई है उसीप्रकार सब त्रैवय कोंमें भी एक ही सागरकी ६ समानरूपसे स्थिति माननी पडती परन्तु सूत्र में नव शब्दके उल्लेखसे हर एक अवेयकमें एक एक सागर हूँ अधिक स्थिति है, यह अर्थ होता है इसरीतिसे हर एक ग्रैवेयकमें एक एक सागरप्रमाण आधिक स्थिति हूँ है, यह.प्रगट करने के लिये सूत्रमें नव शब्दका उल्लेख किया गया है। विशेष-प्रत्येक अवेयकमें एक एक
सागर आधिक स्थिति लीजाय इसलिये नव शब्दका प्रयोग तो सार्थक है परन्तु 'नवसु' यह जुदा विभक्त्यंत पद क्यों किया ? क्योंकि जब अवेयकोंको नौ बतलाना है तव 'नवप्रैवेयकेषु' ऐसा ही उल्लेख ठीक था इसमें दो अक्षरोंका लाघव भी था ? उसका समाधान यह है कि जिस तरह यक नौ हैं उस तरह
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हा उल्लेख ठीक