Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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का अध्याय
ऊपर है और न नीचे है । इस प्रकार परिणामोंकी विशुद्धिकी प्रकर्षतासे ही उत्तम स्वर्गके स्थानों में जन्म है अतः निकृष्ट परिणाम स्वरूप आभिमान वहां तीव्रतासे नहीं हो सकता ॥२१॥
भवनवासी व्यतर और ज्योतिष्क इन तीन निकायोंमें तो लेश्याओंका विधान पहिले वर्णन कर एं दिया गया है अब सूत्रकर वैमानिक देवोंमें लेश्याओंके विधानको व्यवस्था करते हैं
पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥२२॥ दो युगलोंमें तथा तीन युगलों में और शेषके समस्त विमानोंमें क्रमसे पीत पद्म और शुक्ल लेश्या भी होती हैं। शंका-भवनवासी आदि देवों में ऊपर लेश्याओंका विधान किया गया है वहींपर वैमानिक , देवोंकी लेश्याओंका भी वर्णन कर देना था फिर यहाँपर पृथक् क्यों लेश्याओंका विधान किया है ? || के उत्तर
___ पृथग्लेश्यावधीनं लघ्वयं ॥१॥ __यहांपर पीतपझेत्यादि सूत्रसे जो पृथक् रूपसे वैमानिक देवोंमें लेश्याओंका विधान किया गया है है वह अक्षरकृत लाघवके लिए है। यदि जहांपर भवनवासी आदि देवोंमें लेश्याका विधान किया गया है है वहांपर वैमानिक देवोंमें लेश्याका. भी विधान किया जाता तो लेश्याओंके स्वामी वैमानिक देवोंका ए भी वहां भिन्न भिन्न रूपसे उल्लेख करना पडता जिससे भिन्न सूत्र बनाने वा एक ही सूत्रमें समावेश
करनेसे बडा भारी गौरव होता इसालिये जैसा उल्लेख किया गया है वैसा ही उपयुक्त है। पीतपद्मशुक्ल५ लेश्या' इस निर्देश पर वार्तिककार विचार करते हैं-..
पीता च पद्मा च शुक्ला च पीतपद्मशुक्लाः पीतपद्मशुक्ला लेश्याः येषां ते पीतपद्मशुक्ललेश्याः।यह
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