Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरलांतवकापिष्ठेषु पद्मलेश्याः ॥४॥ ब्रह्मलोक ब्रह्मोत्तर लांतव और कापिष्ठ स्वर्गों में रहनेवाले देवों के पालेश्या है।
शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेषु पद्मशुक्ललेश्याः ॥५॥ शुक्र महाशुक शतार और सहस्रार इन चार स्वर्गों में रहनेवाले देवोंके पद्म और शुक्ल दो लेश्या हैं।
___ आनतादिषु शेषेषु देवाः शुक्ललेश्याः ॥६॥ आनत आदि बाकीके विमानोंके देवोंके शुक्ललेश्या है। उनमें भी जो देव नव अनुदिश और है पांच अनुचर विमानोंमें रहनेवाले हैं उनके परम शुक्ललेश्या है । शंका
शुद्धमिश्रलेश्याविकल्पानुपपत्तिः सूत्रेऽनभिधानादिति चेन्न, मिश्रयोरेन्यतरग्रहणात् यथा लोके ॥ ७॥ '
ऊपर जो सौधर्म आदि विमानोंमें लश्याओंका विधान किया गया है वह शुद्ध और मिश्र दोनों प्रकारका लेश्याओंका है अर्थात् कहींपर पीत, पद्म और शुक्ल एक एक शुद्ध लेश्या कही गई है और कहीं कहीं पर पीत पद्म, और पद्म शुक्ल इन मिश्र रूप लेश्याओंका भी विधान है परंतु सूत्रमें शुद्ध लेश्या
ओंका ही उल्लेख किया गया है मिश्र लेश्याओंका नहीं इसलिये पीतपद्मत्यादि सूत्रसे सौधर्म आदि है स्वर्गों में शुद्ध और मिश्र दोनों प्रकारकी लेश्याओंका विधान नहीं हो सकता ? सो ठीक नहीं। जिस- है प्रकार किसी सडकपर छत्री और वेछत्रीवाले दोनों प्रकार के मनुष्य जाते हों। उनमें छत्रीवाले अधिक हों तो वहांपर 'छत्रिणो गच्छति' अर्थात् छत्रीवाले जारहे हैं ऐसा व्यवहार होता है और वहांपर 'छत्रीवाले' कहनेसे छत्री और वेछत्रीवाले दोनों प्रकारके पुरुषों का ग्रहण होता है उसी प्रकार मिश्र और शुद्ध इन दोनों में एकका ग्रहण करनेसे दूमरेका ग्रहण हो जाता है। सूत्रमें यद्यपि मित्रोंका ग्रहण नहीं है
SHASHTRIOR PERS FIBRORISTORE